Monday, December 31, 2018

पिंजर का पिंजरा

पिंजर का पिंजरा

हम सभी को तो
यही सदा लगता है न कि
हम अपनी मर्जी से ही
आ जा रहे हैं, खा पी रहे हैं और
सबकुछ देख सुन भी रहे हैं...
मग़र ऐसा नहीं है
बड़े ही शातिराना तरीके से
हमसे यह सब करवाया जा रहा है
और एक बड़ा झूठ हमसे सच के रूप में
मनवाया जा रहा है -
कि हम आजाद हैं
कि हम स्वयं की मर्जी के मालिक हैं...।
मग़र कितनों?
कितनों को यह पता है कि
हम समाज के बंधक हैं चंद सुविधाओं के लिए
रहन रखी जा चुकी रिश्तों-नातों की डोर में कसी
एक चल-सी दिखती सम्पत्ति...।
जिसे विज्ञापनों,सामाजिक सीखों और
शिक्षा के दौरों द्वारा यह अहसास पचाया जाता है कि
हम पूर्णतः आज़ाद हैं!
अपनी ही मर्जी से
खा-पी, देख-सुन और
चल फिर भी रहे हैं...
    ........      सुरेन्द्र भसीन

Thursday, December 13, 2018

स्तब्ध

स्तब्ध

पत्थर
कैसे भी हों
खूबसूरत ही होते हैं
अपना एक निश्चित आकार लिए
एक कठोर कड़ा विचार लिए
निस्पंद,निसंकोच निहारते सबकुछ
तराशे हुए
दीवारों,मीनारों में चिने-चुने
अनगिनत रहस्यों को समेटते
चीखों-चीत्कारों के साक्षी
समय को,इंसानी फ़ितरत की  उलट-पलट देखते
स्तब्ध/ख़ामोश
एक दूसरे पर जमे.... जमे।
            --------      सुरेन्द्र भसीन  

साँस ही भार

साँस
साँस दर साँस
सिर्फ़ अपनी एक साँस के साथ
हम .. क्या ? क्या ?
नहीं लटकाते जाते -
धन,सम्पति,भूत,भविष्य,नाते,रिश्ते,कसमेंऔर वायदे भी।
नहीं जानते कि अगली साँस शायद आयेगी भी या नहीं?

हम जानते हैं कि
सब कुछ बदल जायेगा उसके रूकते ही

फिर भी हम
उसके साथ जीवन भर
लगातार लटकते-लटकाते जाते हैं
 कैसे-कैसे ?
भार  और  भार  और  भार.....
लगातार।
                 ----------           सुरेन्द्र भसीन  

जिंदगी से बात

ऐ,
जिंदगी मेरी !
तुम हमेशा अपनी ही करोगी
या कभी कुछ
मेरी  भी  चलने  दोगी ?

जब-जब मैं
अपनी मर्जी की करना चाहता हूँ
तुम मेरे पिछले कर्मों या भाग्य के
रोड़े अटकाते हुए ।
हर बार मुझे
नाक़ामयाबी या मज़बूरी का
अंगूठा दिखती हो।

हर बार
जो भी नया होता है तुम्हारे दम पे
मुझे तो नहीं भाता।
किया तुम्हारा कुछ भी क़सम से
मन मार के ही स्वीकार लेता हूँ मानों
गर्मियों में दान में मिला कंबल।

सच कहता हूँ
अगर क्षण भी मैं
अपने को जी लूँ क़सम से
तो आज़ाद हो जाऊँगा इस भरम से कि- 
तुम मेरी अपनी नहीं हो, 
कसम से।
          -------------        सुरेन्द्र भसीन     
 

बड़ा प्रश्न

अपने से प्रश्न करना
इंसान  को नहीं आता है
दरअसल इंसान खुद से क्या चाहता है
यह उसे भी पता /समझ नहीं आता  है...

दूसरों की सुनने,मानने और कहने में ही
उसका सारा जीवन निकल जाता  है....

लोग क्या कहेंगे ?
यह अच्छा लगेगा या नहीं ?
जैसे फालतू जुमलों में फंसा इंसान 
अपने से ही पराया का पराया ही रह जाता है  
जैसे किराए के मकान में रहता रहे कोई याकि
समाजिक साहूकार का कर्जा चुका रहा हो जीवन भर....
कुछ भी कह लो -
मगर जीवन भर
वह अपने से कभी पूछ नहीं पाता है कि
दरअसल वह अपने से
क्या  चाहता  है ?
             -------------              सुरेन्द्र भसीन   

न सपने अपने न अपने अपने

अपनों 
से ज्यादा 
सपने कलपाते हैं,
जिंदगी भर दौड़ो 
फिर भी हाथ नहीं आते हैं

दिखते तो हैं पुराना रिश्ता हो जैसे
मगर आकाश में टिमटिमाते तारे
एकटक देखते रहो...
देखते रहो...
पलक झपकते ही
ओझल हो जाते हैं...
बेगाने हो छूट जाते हैं
फिर से बनाने/देखने पड़ते हैं
फिर से शुरू करो
नाराज़ रिश्तों को गाँठना
तारों सा टांकना..
जीवन भर करते रहो वरना
न जाने कब अपने ही सपने हो जाते हैं।
------               सुरेन्द्र भसीन          

Sunday, December 2, 2018

आज इंसान/ प्रकृति

आज इंसान
प्रकृति के निर्णयों से
सहमत नहीं हो पाता है,
उनके सामने सिर नहीं झुकाता है,
नतमस्तक नहीं होना चाहता है।

तो प्रकृति भी
इंसान के कृत्यों को कहाँ
वहन-सहन कर पाती है।

दोनों में दिनों-दिन
दूरियां बढ़ती ही जाती हैं।
इसलिए इंसान अगर प्रकृति को खाता है तो 
कभी प्रकृति भी
इंसान को लील जाती है।
         ------     सुरेन्द्र भसीन

Thursday, November 22, 2018

वैमनस्य

वैमनस्य

हमारी स्वयं की
मिट्टीकी, गुस्से की
गठानें ही होती हैं वैमनस्य।
न जानें कैसी रूकावटें,सलवटें हैं
यह हमारे व्यक्तित्व की
जो सरल जीवन प्रवाह को
करती हैं अवरुद्ध!
और प्रेम ऊष्मा पाकर
हो जाती हैं विभोर!
जैसे घी या बर्फ पिघलता ही जाता है
ताप पा..पाकर।
प्रेम प्रवाह के आवेग से ही
वर्षों से रुकी सम्बन्धों की नदियाँ
फिर ...फिर बह पाती हैं
वरना दुरुह चट्टाने
ही हो जाती हैं।
       ------   सुरेन्द्र भसीन

समाज हमारा

हम जिसे
प्रेम कहते हैं न!
बहुतों के लिए कुछ नहीं है
वासना के सिवाय...
जिम्मेवारी रहित भोगने की एक प्रक्रिया
उलीचना-उलटना मात्र...
दिनभर की समाज से इकठ्ठी हुई
सड़ांध उतारने का प्रयास...
क्या किसी काम आता है?
महज काई कीचड़ जमा काला बदबूदार पानी..
सामाजिक परनाले में बहने
आ जाता है...
संतान, औलाद कहलाता है
यूँ ही आने वाले
रीढ़ विहीन समाज का
निर्माण होता जाता है।
       -------    सुरेन्द्र भसीन

Tuesday, November 20, 2018

मरने से पहले

मरना तो
होता है हरेक को बारबार
चीख-चीख कर मरो या
मरलो बेआवाज़
मरो अपना अकेले या
मरो लोगों के ही लिए
लोगों के साथ...
अब कोई
कहर नहीं टूटता
न होती है कांच टूटने की तीखी ध्यानाकर्षक आवाज...
क्योंकि बाकी सब
अपनी जरूरतों-स्वार्थों में
मर चुके हैं पहले ही
कई कई बार...।
      -------    सुरेन्द्र भसीन. मरने से पहले

Wednesday, October 31, 2018

बेटा

दूसरों की
ऊँची से ऊँची उड़ती पतंग को देखकर
तुम झुंझलाहट में
अपनी भी पतंग को
बेतहाशा तुनके लगाते जा रहे हो
नहीं जानते कि
कमजोर कमर की बनी तुम्हारी यह पतंग
ज्यादा तुनके नहीं झेल पायेगी और
न ज्यादा ऊंचा उड़ पायेगी....
तुम्हारी जिद से टूट कर
नीचे धराशायी जरूर हो जायेगी...
अच्छा हो इसकी क्षमता को समझ
कुछ कम ही उड़ा लो और
 इसे टूटने व टूट कर बिखरने से
बचा लो।
       ------       सुरेन्द्र भसीन

Tuesday, October 30, 2018

अनाम योद्धा

मैं
अपने आपको
एक बिन्दू से दूसरे बिन्दू तक
चलता हुआ देख रहा हूँ लगातार...
रोज बदलता हुआ
निरंतर सफ़र करता हुआ।
देह के एक बिन्दू से जीवन के विभिन्न बिंदुओं तक
रोज होती है मेरी यात्रा मग़र
मैं समानुपाती नहीं बढ़ पाता हूँ
 - कहीं थोड़ा तो कहीं ज्यादा,
   कहीं आगे तो कहीं पीछे होता जाता...
फिर-फिर कोशिश करता
अपना आंकलन खुद ही करता
घिसट-घिसट के ही सही
मग़र आगे बढ़ता
अपने से संघर्ष करता।
          -------        सुरेन्द्र भसीन

Monday, October 29, 2018

झूठ और सच

पहले
झूठ और सच में
अंतर हुआ करता था
कई समुद्रीमील का...
झूठ को सच साबित करने वाला
उसमें डूब ही जाता था हमेशा
और अपने को सही साबित नहीं कर पाता था।
दोनों अपनी चाल-ढाल, रंग-ढंग से
दूर से ही पहचाने जाते थे,
कभी एक-से नजर नहीं आते थे..
मग़र आज तो
झूठ और सच एक ही हो गए हैं
पहचान में ही नहीं आते
दोनों जुड़वाँ भाईयों जैसे
कपड़े बदल-बदल कर आते-जाते बार-बार सामने
सच में,
झूठ और सच में हम अंतर नहीं कर पाते...
सोचो कभी, क्या हो?
कि किसी सदी का
काला और सफ़ेद खो जाए
याकि एक हो जाए-
सारा काला या सारा सफेद?
दिन या रात तो बचे ही न जैसे...
सारे रंग  -  बदरंग
फिर ऋतुएँ भी नहीं बदलेंगी
समय भी कहीं रुक गया हो जैसे ????
झूठ और सच का लंबा अंतर
बना ही रहना चाहिए
वैसे...!
        -------       सुरेन्द्र भसीन

Friday, October 26, 2018

झूठ - एक सामाजिक व्यवहार

सामाजिक व्यवस्था

अब
झूठ भी
सामाजिक व्यवहार ही हो गया है
एक मान्यता प्राप्त छूट याकि सुविधा-
      मैंने तो देखा नहीं
      मुझे पता ही नही
      मैं नहीं जानता या मानता
      तुम्हारे पास क्या सुबूत है
      मेरा यह मतलब तो नहीं था
      वे घर या ऑफिस में नहीं हैं
      मैं जरूरी मीटिंग में हूँ
और आँकड़ों व तथ्यों के साथ
मनमानी खिलवाड़ भी तो एक आम बात है..
कही बात से मुकरना?
  - मैंने तो ऐसा कहा ही नहीं।
कि कौन रिकॉर्डिंग हो रहा है।
सब चल रहा है धड़ल्ले से...
आदमी गिर गिट से भी तेज रंग बदल रहा है
और फिर
अपनी होशियारी पर
कमीनी-कुत्सित हंसी हंसता है।
एक दूजे को मानो हवा परोसकर
वह किसको ठगता है?
अपने ही मकड़ जाल में
दिनों दिन और और उलझता है।
क्या ऐसे ही
लंबी दूरी तक
कोई समाज/व्यवस्था बना चलता है।
     ----------       सुरेन्द्र भसीन

Thursday, October 18, 2018

             डॉ० बलदेव वंशी
            (1जून,1938 से 7जनवरी,2018)
जन्म स्थान  : मुलतान शहर(पश्चिम पंजाब,अब पाकिस्तान में)
अंतिम समय : बी-684,सैक्टर-49, सैनिक कॉलोनी
 निवास का पता  फरीदाबाद, हरियाणा।
शिक्षा         :  एम. ए.(हिंदी), पी.एच. डी.
कार्य          :  पूर्व रीडर हिंदी विभाग, श्री अरविंद               महाविद्यालय(सांध्य), दिल्ली विश्वविद्यालय।
हिंदी के विख्यात कवि, आलोचक, नाटककार,पत्रकार,सम्पादक। सोलह कविता-संग्रह, बारह आलोचना-समीक्षा पुस्तकें, दो सन्त ग्रन्थावलियाँ,दर्जन से अधिक सन्तों की पुस्तकों का सम्पादन, इसके अतिरिक्त सौ से अधिक अन्य पुस्तकें प्रकाशित।कबीर शिखर सम्मान,सन्त मलूक रत्न पुरस्कार, उत्तरप्रदेश सरकार,पंजाब सरकार,केंद्र सरकार और राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित।विश्व रामायण सम्मेलन, बेल्जियम एवं मारीशस, इंग्लैंड, हालैंड, नेपाल आदि देशों की व देश में भी चेतना, साहित्यिक-सांस्कृतिक यात्राएँ कीं। 'भाषा संरक्षण संगठन' के संस्थापक अध्यक्ष, 'विश्व कबीरपंथी महासभा' के अध्यक्ष, 'अखिल भारतीय श्री दादू समाज' के महानिदेशक।'विचार कविता'(पंजी०,त्रैमासिक)के सम्पादक।


विभिन्न सम्मतियाँ
 "हाँ, प्रकृति और ऋतुएँ भी आपके कवि को बड़ी सूक्ष्मता से प्रेरित करती हैं-'सरदी' को 'गुरबत पर अय्याशी की सवारी' और 'बादल' के लिए 'आपसी गिले', जो बहुत दिन तक अविस्मरणीय रहेगी- देन यह आपके भाव तत्व की है। मुझे विश्वास है, आपकी कृति का अधिकाधिक पाठक स्वागत करेंगे।"                                  डॉ. हरिवंशराय बच्चन

"डॉ. बलदेव वंशी समाज और मनुष्यता के कवि हैं। उनकी काव्य-यात्रा में अपने समय के विषम यथार्थ की पहचान दिखाई पड़ती है, किंतु समाज और मनुष्यता में गहरी आस्था रखने वाला उनका कवि यथार्थ के अंधकार में भटक नहीं है।"
                                                    डॉ. रामदरश मिश्र

"कवि वंशी ने शताब्दी के उत्तर चतुर्थ में अपनी रचनावली की छाप छोड़ी है वह इतिहास के ज्योति पत्र में दीप्तिमान रहेगी।"                                           डॉ. रमेश कुंतल मेघ

"बलदेव वंशी की कविताएँ नगरीय अनुभूतियों का तीसरा आयाम व्यक्त करती हैं। उनकी संवेदनाएँ नगर जीवन के निचले और मध्यम वर्ग का अनिवार्य अंग है।" -गिरिजाकुमार माथुर

"बलदेव वंशी के कवि को मैंने जितना कुछ पढ़ा, सुना, समझा और गुना है, अपनी सृजनात्मकता और विचारशीलता में वे कुछ-कुछ मुक्तिबोध की जस्ट-बिरादरी के रचनाकार हैं, एकदम शुरू से लेकर अपनी रचनाशीलता के इस पड़ाव तक।"                                        -डॉ. शिवकुमार मिश्र
"यथास्थिति को तोड़ने के लिए लोक की अदम्य जिजीविषा जीवनी शक्ति, विश्वास और आस्था से जुड़कर गलत को चुनोती देने की क्षमता अर्जित कस जोखिम भी उठाते हैं,वंशी। बलदेव वंशी के लिए चाहे भारतीय भाषाओं का प्रश्न हो, चाहे सन्तों का, चाहे प्रतीक -कथाओं का, देन का उद्देश्य इसी चुनोती को स्वीकार करना रहा है।"  -विष्णु प्रभाकर

"बलदेव वंशी एक सृजनशील लेखक हैं और सन्तों की वाणियों का अध्ययन करने,समकालीन कविता में अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं। किंतु उन्होंने अपने लिए एक अलग लेखन-संसार की भी रचना की है और उन का यह संसार मुझे विशेष रूप से आकर्षित करता है।           -डॉ. महीप सिंह


Saturday, October 6, 2018

प्रेम कामना

प्रेम कामना

न जाने
यह क्या है?
कि क्यों है?
कि जब भी तुम मुझे डाँटती हो तो
मुझे बड़ा ही अच्छा लगता है।
तब मैं एक बच्चे जैसा बन जाता हूँ और
तुम मेरी माँ या फिर कोई मेरी प्रिय टीचर...
मतलब नहीं कोई होता
मुझे मेरी किसी गलती से
मुझे तो बस तुम्हारा डांटना ही बड़ा भाता है...
सब तरफ मीठा-मीठा-सा हो जाता है...
मैं समझ नहीं पाता हूँ कि मुझे
तुम्हारी डांट खाने में इतना
मजा क्यो आता है?

तुम मेरे कान उमेठो
मुझे चपत लगाओ तो
मन कैसी-कैसी चाहत से भर जाता है
मैं तो चाहता ही यही हूँ कि
मैं गलती न भीे करूँ
तो भी तुम मुझे डांट लगाओ
मुझ पर बेवजह चिल्लाओ
मेरे बाल और गाल खींचो
मुझसे जबरदस्ती गलती मनवाओ
और
यों मुझे
 अपनी समीपता का अहसास करवाओ।
        ------     सुरेन्द्र भसीन

Thursday, October 4, 2018

अपना /अपनों से युद्ध

कैसा?
कैसा लगता है
अपने ही घर में
अपनों से युद्ध लड़ते हुए?
हार-जीत का
फैंसला करते हुए?
महाभारत के किसी खलनायक में ढलते हुए...
ये तेरा, ये मेरा करते हुए
अपने अहं की वजह से
अपने ही घर मे
अपने वजूद को सिद्ध करने का
प्रयत्न करते हुए...?
प्रेम,लगाव या स्नेह तो मानों
कहीं वाष्पित ही हो जाता है तब
नज़र में केवल
मैं, मेरा औऱ मुझको ही भर जाता है तब...
कठोर पत्थर पर चोट पड़े तो वह भी
टूट-फूट जाता है मग़र
अहं तो चमकते हीरे का बना है
अपनी चमक, अपने दाम
सभी को  तब जरूर दिखलाता है और
किसी भी भारी भरकम प्रहार से भी
टूट नहीं पाता है...
         .......       सुरेन्द्र भसीन          

संजीवनी

(अंधेरे में, घोर निराशा में, अंधेरे में चमकती संजीवनी बूटी,एक आशा का प्रतीक है को हनुमान जी श्री राम जी की सेना, सत्य की विजय के लिए तब लाए जब श्री लक्ष्मण जी(युवावर्ग) मूर्षा में था)

जब
अंधेरा घेरता है सब दिशाओं से
तब भीतर से आता है शक्ति का हनुमान
चमकती संजीवनी बूटी ले...
तोड़ता है मूर्छा।
जगाता है आस-उल्हास
और मनरूपी राम
फिर उद्यम में लग जाता है
काले रावण को हराने,
अपनी कामना, इच्छा की
सीता को पाने।
         ------  सुरेन्द्र भसीन

बढ़ना

बढ़ना
तो सभी को है
आगे ही आगे
अपनी-अपनी चाहत लिए
उम्मीद के वरक्ष पर
लताओं-सा लिपटकर
याकि तरक्की के रास्तों पर
एक-दूजे को धकियाते-धकेलते
एक-दूजे पर पांव रख-रखकर,
प्रतियोगिता व द्वंद युद्ध-सा करते- कराते...
ज़माना अभावों का है
एक-एक उम्मीद व्रक्ष पर
अनगिनत लताएं हैं चिपटीं
घुन को भी मात देतीं...
कौन जाने किसको?क्या चाहिए?
याकि किसको? क्या-क्या नहीं चाहिए।
सब
उम्मीद के व्रक्ष पर
लताओं से लिपटे हैं
बढ़ते-चढ़ते
एक-दूजे से आगे बढ़ने की,
अधिक पाने की होड़ हैं
करते!...
          ------        सुरेन्द्र भसीन

Wednesday, September 19, 2018

पाती

पाती

सब कुछ तो
कह नहीं दिया है मैंने
काफी कुछ
मिलने पर ही कह पाऊँगा...
तुम्हारे हाँ.. न..के स्वर-अनुस्वर और
आते-जाते चेहरे के भावों से
अपनी बातों का प्रभाव
अगर मैं समझ पाऊँगा तो
बाकी हाल-चाल भी बतिया पाऊंगा...
वक्त निकालकर मिलने आ जाओ
फोन पर ही सब दुख-सुख न समझा पाऊंगा...
अपने गाँव को कैसा शहरी रोग लगा है यह
थोड़े में कैसे समझाऊँगा?
अब बाकी जो कुछ बचा है मन में
सामने ही कह पाऊँगा...
उम्र भी नहीं बचा है कुछ ज्यादा
सुन लो!
वरना मैं यह बोझ अपने
साथ ही लेता जाऊँगा...
                  चला जाऊँगा।
        ---------     सुरेन्द्र भसीन

Thursday, August 23, 2018

नींद

पहले जबरदस्त
और अब जबरदस्ती ही आती है नींद,
घण्टों बिस्तर पर पड़े रहो
शुरू होती ही नहीं है
नींद की मशीन।
लोग कहते हैं यह
खराब हो गई है मगर
मैं इसमें दिन भर की थकान मिलाऊँ तो
यह काम करने लग जाती है।
फिर बिस्तर पर पड़ते ही
झट नींद आ जाती है।
       ------  सुरेन्द्र भसीन

ज़िब्ह

पड़ोसी के
घर बंधे बकरे को नहीं
पर मुझे तो
यह मालूम है कि
कल बकरीद है, इसलिए
बकरे की मैं... मैं पर
मैं बड़ा छटपटाता हूँ
और उसके
कल एक बार जिबह होने से पहले
खुद आज
कई-कई बार
क़त्ल हुआ जाता हूँ...
       ----- सुरेन्द्र भसीन             

Wednesday, August 1, 2018

हिसाब

हिसाब

दो रोटी सुबह
दो दोपहर और
दो रोटी रात
प्याज के साथ खाकर ही
गरीब-मजदूर का जीवन चल जाता है।
मगर संसार का हर पूंजीपति
इसी हिसाब में मरा जाता है कि
गरीब इतनी रोटी भी
क्यों और कैसे खाता है?
       -----    सुरेन्द्र भसीन

Tuesday, June 19, 2018

वक़्त का बहाव

वक़्त की नदी में
बहुत बहाव है...
बहुत ज्यादा रवानी और पानी है...
पकड़े रहो, जकड़े रहो
एक दूसरे को लगातार
पूरी मजबूती से, शिद्दत से...
बह गए तो
याद चाहे कितना भी आएं
मिल न पाएँगे फिर कभी
बहते ही चले जाएंगे...
न जाने कहाँ रुकेंगे...?
रुकेंगे भी या नहीं कहीं कि
पानी में ही, वक़्त में ही
गल घुल जाएंगे
सदा सदा के लिए...
पकड़े रहो,
जकड़े रहो
एक दूसरे को
वक़्त की नदी में
गलने घुलने से पहले...
वक़्त की नदी में
बहुत बहुत बहाव है...।
     ------     सुरेन्द्र भसीन


Monday, June 18, 2018

मन

जब भी जब भी
मैं तुम्हारी-हाँ या न
आँखों से पढ़ना चाहता हूँ तो
कुछ उल्टा ही पढ़ समझ जाता हूँ।
जब भी मैं
नहाने की लिए तुम्हारी
आँखों से अथाह शीतल जल के झरने चाहता हूँ तो
न जाने क्यों
सूखे,
 रेगिस्तान में
पहुँच संशय के अंधडों में
अपने को घिरा पाता हूँ।
और यूँ ही जब भी
मैं लम्बे हरे भरे बाग में
तुम्हारे संग विचरना चाहता हूँ तो
स्वयं को
खारे पानी के समुद्र में
घिनौने प्रश्नों के जलीय जीवों से
अपने को घिरा पाता हूँ।
मैं तुम्हारी आँखों के
सही व गलत के कुतर्कों में
फँसना नहीं चाहता हूँ।
बस तुम्हारी आँखों से,
 तुम्हारे मौन से,
तुम्हारे मन में उतरना चाहता हूँ।
          ------    सुरेन्द्र भसीन

Saturday, June 16, 2018

खुशनसीब?लोग

खुशनसीब?लोग

खुश
नहीं हैं लोग कहीं से भी
मगर खुश होना चाहते हैं
रोज हंसने के नये नये बहाने ढूँढे जाते हैं
कि आज मेरा जन्मदिन है
कि शादी की सालगिरह है
कि दिवाली है
कि ईद या दशहरा है
और न जाने क्या क्या?
जैसे कि अपने को चराते, बहलाते हैं
कि आगे के आगे धकेले जाते हैं...?
जीवन जी नहीं रहे
बस गुजारते जाते हैं...
यूँ कि आधे मरे हुए लोग
मगर पूरा जीवन जीना चाहते हैं...
हंसने के बहाने
ढूँढने में जीवन बिताते हैं।
        -----      सुरेन्द भसीन

Thursday, June 14, 2018

बेटे चाहो या बेटियाँ

असल
इच्छाएँ हमारी बेटे नहीं
बेटियाँ ही होती हैं
जो बड़ी होते ही, फलीभूत होते ही
किसी और की हो जाती हैं,
हमें छोड़ जाती हैं....
और बेटे ?
ठूँठ के ठूँठ!
खड़े बाँस के बाँस
हमेशा के लिए ही
पास पड़े रह जाते हैं
बुढ़ापे की लाठी बने
तो बन गए
वरना आखिर तक
हमें जलाने के ही काम आते हैं...।
कौन है अपना?
कौन है पराया?
धरती के सारे रिश्ते
देह के साथ यहीं खत्म हो जाते हैं...।
अकेले आये थे कभी
हम अकेले ही गुजर जाते हैं...
जोड़ तोड़ के चक्कर में
हम जुड़ते तो नहीं कभी
बस टूटते ही चले जाते हैं...
बिखरते ही चले जाते हैं।
         ------      सुरेन्द्र भसीन





Wednesday, June 13, 2018

कचरा घर

कूड़ा कचरा
गन्द ही पड़ा हुआ है
भीतर बाहर सब तरफ
बुहारते, उठाते, संभालते
थक ऊब ही जाते हैं
फिर कहाँ निकालें?
कहाँ फैंके, गिराएँ?
समझ नहीं पाते हैं...।
जिधर देखो
बदबू का भरा बोरा है जा रहा...
उठता, बैठता, बोलता...
कोई अच्छी सोच नहीं
कोई अच्छी बात नहीं...
कचरा बनाने में,
कचरा फैलाने में
इतना हर कोई व्यस्त कि
अपने को साफ नहीं कर पा रहा...
बड़ा आदमी  हुआ तो मायने
बड़ा कचरा फैला रहा...
भीतर बाहर से
समाज कूड़ा-कचरा घर
हुआ जा रहा....।
      ------      सुरेन्द्र भसीन

Wednesday, June 6, 2018

निवेदन

निवेदन

मैं
तुम्हारे जीवन में
एक सूखते पौधे की तरह से ही हूँ
जिसकी अब तुम्हें
याद नहीं आती है कभी...
तुम उसे अपने प्यार का
जल नहीं चढ़ाती हो अब कभी...
तुमने अपनी दिल की बगिया में
अनेकानेक ऊँचे-बड़े पेड़ लगा लिए हैं
असंख्य तरह के फूल भी खिला लिए हैं
जिनसे तुम सदा खेल-बतिया लेती हो
अपने प्रेम-स्नेह-अपनत्व का जल उन्हें ही
चढ़ा देती हो, मगर
इधर बचपन से तुम्हारे दिल के
एक कोने में उगा-बसा मैं
उपेक्षित-रीता,
सूखता ही जाता हूँ।
निवेदन है कि मेरी भी व्यथा सुनो!
मैं हूँ, बचपन का
तुम्हारी दिल की बगिया में उगा
तुम्हारी चाहत में
एक सूखता, पौध!
       ------      सुरेन्द्र भसीन

आत्मायें और इच्छायें

इस
क्षणभंगुर संसार में
जितनी आत्माएं नहीं हैं
उनसे कई गुणा चाहतें हैं विचरतीं...
कुछ चींटी से भी महीन
कुछ दानवाकार,
सब कुछ लील जाने को आतुर..
कुछ रंग बिरंगे गुब्बारे-सी
जरूरतों की हवा से फूलती फैलतीं
एक दूजे से टकराती, संघर्ष करती
जीतती-हारती
अपनी जगह स्थापित हो जातीं या फिर
हारकर वक्त में तिरोहित हो
पुनर्जन्म लेतीं।
आत्माओं से कहीं ज्यादा अदृश्य
मगर पूरा जीवन घेरतीं।
आत्मा ही इच्छा हो जाती और कभी
इच्छा ही आत्मा बन कर देह धरती मगर
दोनों देह में आतीं।
वे अस्तित्वहीन होकर भी
हमें भर्मित करतीं
हैं, मगर
सदा अजर-अमर।
       -----      सुरेन्द्र भसीन 

Sunday, June 3, 2018

बदन की आवाज़

हर बार की तरह
इस बार भी हमारे
एक दूजे के प्रति समर्पित भाव
होठों पर ही बर्फ हो गए हैं
शब्द बनने से पहले...।
जबभी जबभी
हमारे दिल से दिल मिल जाते हैं
जिस्म से जिस्म टकराते हैं
और हम सिसकियों सिसकारियों में
अनेकानेक रातें बीताते हैं।
और हमारे होंठ सिले,
शब्द बर्फ बने रह जाते हैं
तब जिस्म ही एक दूजे को
बहुत कुछ
कह सुन जाते हैं।
        ------       सुरेन्द्र भसीन       

Friday, June 1, 2018

निरमुण्ड!

निरमुण्ड!
 दिशाहीन!
भीड़ में से ही
उठती/बनती है कोई निर्देशित आवाज
और भीड़ आश्वस्त होकर
करने लगती है अनुसरण उसका
मगर कुछ दूर जाकर ही
वह भी पुराने ढर्रे, सड़क,परिपाटी पर
उतर/बिक जाती है या
संसद की ओर मुड़ जाती है।
जनता फिर फिर ठगी जाती है जैसे
पूंछ के पीछे चलती कोई साँपिन
झाड़ियों में उलझ पुलझ जाती है और
जनता की नये की/आराम की प्यास
अधूरी ही रह जाती है।
उसे मर्गमरीचिक में और ज्यादा
कल्पाती ,दौड़ाती ...
        ------     सुरेन्द्र भसीन




Thursday, May 31, 2018

वृताकार वक़्त

इस 
वर्त्ताकार वक्त में
कोई आगे, कोई पीछे नहीं होता...
हो चुका भी
होने के पीछे होता है और
होता ही रहता है बस रूप बदल बदल कर..
उम्र का
अमीरी का
अहम का
चक्राकार परिवर्तन निष्चित है
लगातार आदमी को
और और उलझाता
आदमी कोल्हू के बैल की तरह
बस गोल गोल घूमता जीवन बिताता
वर्त्तकार वक्त के चॉक पर चढ़ा
निरन्तर चकराता...।
        ------      सुरेन्द्र भसीन          

Friday, May 25, 2018

कराहते ठूँठ

कराहते ठूँठ

पेड़ हो
इंसान हो याकि सम्बंध
सूखने मत दो कभी
सूखते ही बेकार हो जाते हैं
काट दिए जाते हैं जीवन जड़ों से
वे खुद भी खिलना खिलखिलाना भूल जाते हैं
आखिर सूखापन किसे भाता है
चाहत के न उनपर फूल आते हैं न पत्ते
कोई पक्षी भी बैठना नहीं चाहता है
ऐसे में वे सिर्फ
जलते हैं और जलाने के काम आते हैं
या फिर बस
कराहते ठूंठ रह जाते हैं...
        ------     सुरेन्द्र भसीन

Wednesday, May 23, 2018

बाजार

अकेले में 
जब जब भी लोग
अपनी गिरेबान में झाँकते हैं
तो थर थर काँपते हैं
कोई भी अपने जमीर से आँखे नहीं मिला पाता
आईने में वह खुद का
अक्स नहीं देखते
आईना ही उन्हें घूरने है लग जाता।
कहां तक?
पाप का काला अंधेरा समेटें
कुछ तो पुण्य किरण हो
तभी तो कुछ अक्स है दिखता 
वरना,आईना काला ब्लैकबोर्ड होकर
हमीं को है मुंह चिढ़ाता।
जमीर तो रहा नहीं अब किसीका
दुनिया के बाजार में
सभी कुछ बेख़ौफ़ बिकता है जाता..
         ------    सुरेन्द्र भसीन

Tuesday, May 22, 2018

जंगल ही है

जंगल ही है 


मैं
दो किनारों में नहीं 
झूलता हूँ कभी देर तक
जल्दी ही उकताकर
कोई एक किनारा पकड़ लेता हूँ
अपने निर्णय का सहारा लेकर...
सही या ग़लत
यह वक़्त ही बताता है आगे चलकर
जब  वह मुझे शहर या जंगल में
छोड़ जाता है।
मुझे तजुर्बे से मालूम है कि
आदमखोर तो रहते हैं दोनों ही ओर
जो मुझे चैन से जीने तो नहीं देंगे
कभी किसी भी ओर...
खतरा भी एक समान ही है दोनों ही ओर..
फिर अनिर्णय में
गोते लगाने का लाभ नहीं कोई
झूझने को सदा तैयार रहो तो
निकल चलो, बढ़ चलो
आँख मूंद के
जंगल हो या शहर
किसी भी ओर...।
        -----     सुरेन्द्र भसीन

Sunday, May 20, 2018

अबोध

वस्तुएं हों
स्थितियाँ हों याकि सम्बंध
मैं उन्हें बड़ी मजबूती से
पकड़ता हूँ, जकड़ता हूँ 
मन से,तन से अपनी आत्मा से
छूट जाने का सदा
बड़ा भय खाता हूँ
इसलिए भीतर ही भीतर
कड़ा हो जाता हूँ तो
सहज व्यवहार नहीं कर पाता हूँ...
दरअसल मैं
जीना सीखा ही नहीं हूँ
मैं अभी
अबोध ही हूँ
अनुभवी होना चाहता हूँ।
         ------      सुरेन्द भसीन

Friday, May 18, 2018

...बढ़ती बेलें

....बढ़ती बेलें 

लड़कियाँ
अनुभव कमाने के लिए,
समझदार होने के लिए
कहीं दूर नहीं जाती हैं
अपने आस पास की,करीब की
छोटी छोटी बातों से ही
बड़ी बड़ी समझदारी सकेर लाती हैं
वो ज्यादा देखती हैं या
ज्यादा महसूस करती हैं या
बातों के साथ ढ़ेर सारा वक्त बीतती हैं?
मगर
तन से, मन से जल्दी ही
बड़ी और समझदार हो जाती हैं।
          -------      सुरेन्द्र भसीन

Thursday, May 17, 2018

पत्नी / पटरी

तुमने कभी
मुझे देखा ही कब है,
सोचा ही कब है? 
तुम तो यूँ ही
हर बार निर्द्वन्द्व गुजर जाते हो मुझ पर से
जैसे पटरी को रौंदती
धड़धड़ाती निकल जाती है कोई मालगाड़ी जल्दबाजी से
लाल लाल आंखे, गर्म गर्म सांसे लिए
अपने काम में, अपने अहम में डूबी
अनजाने गंतव्य की ओर...
तुम्हें कभी परवाह नहीं रही मेरी कि
मैं कितनी अकेली, कितनी सूनी
हो जाती हूँ।
और फिर कितने लंबे समय के बाद
ठंडी, सामान्य हो पाती हूँ
तुम्हारे यूँ बेपरवाह गुजर जाने के बाद...
चाहे तुम यही मानों कि मैं 
लोहे की बनी हूँ
मगर पूरी तरह गरमा जाती हूँ
तुम्हारे, अपने ऊपर से गुजरने के बाद...
तुम्हारी पटरी होकर
तुम्हारी पत्नि होकर !
      ---------  सुरेन्द्र भसीन      

परम्परा

एक बेटा ही 
देता है पिता की चिता को आग  
उसके पूर्ण हो जाने को....  
और रह जाता है पीछे उसके 
उसका नाम बढ़ाने को, 
उसके अधूरे पड़े काम निपटाने को, 
परंपरा की पगडंडी को आगे से आगे 
बढ़ाते ही जाने को.... 
इस तरह हम सब भी 
हो जाते हैं एक दिन 
बरगद या पीपल जैसा कोई वृक्ष 
फिर से जलने को, रोपे जाने को 
बेटा बनकर 
फिर बाप हो जाने को .... ।
         ------    सुरेन्द्र भसीन        
  

Sunday, May 13, 2018

धार्मिकता

    धार्मिकता

अपनी
जीवन यात्रा की
अंतिम सीढ़ी पर खड़ा हर इंसान 
भीतर ही भीतर बड़ा घबराता है कि
उसका अगला पग, अगला पल
कहाँ पड़ेगा?
उसको समझ नहीं आता है...
मन ही मन
वह तो यही चाहता है कि
वक़्त उसे बिल्ली के बिलोटे की तरह
अडोल कहीं और रख दे...
मगर उसे अहसास है कि
राहत व रहमत का यह पल
जीवन भर उसने नहीं कमाया है
और अपना जीवन
यूँ ही वासनामयी दौड़ में बिताया है।
अब वह बड़ा छटपटाता है
नालायक विद्यार्थी की तरह
अपना कसूर छुपाता है,
अपना भय किसी से कह भी नहीं पाता है।
इसलिए अपने अंतिम क्षणों को
ईश्वर भक्ति में लगाता है।
------                     सुरेन्द्र भसीन   

Thursday, April 26, 2018

अजनबी

अजनबी

चाहे मैं 
हर गुजरी रात
तुम्हारी देह की
गोलाइयाँ-ऊँचाइयाँ-नीचाइयाँ मापता
उसके कितने भी क्यों न
निर्द्वन्द चक्कर लगाता हूँ
और अपनी पहुँच व पहचान के 
कितने भी निशान क्यों न उसपर
छोड़ आता हूँ
मगर हर अगली रात
मैं इस देह को बिल्कुल नयी-सी पाता हूँ
और उसके लिए अजनबी हो चुका मैं 
फिर से
अपनी पहचान के निशान बनाने
लग जाता हूँ।
       -------   सुरेन्द्र भसीन
खुद को संभाला है जबसे
अपने लिए मैंने हँसना और
रोना छोड़ ही दिया है तब से...
अपने सुखों से, दुखों से
तोड़ ही लिया है रिश्ता तब से...
बादलों-सी याद आती है उनकी तो
आँसू भी तिर आते हैं आँखों में
भूल से देख लेता हूँ उनका चेहरा कभी तो
खिली धूप-सी चमक छा जाती है चेहरे पे...
वरना तो सारे सम्बंधों से,हँसने से, रोने से
मैंने रिश्ता तोड़ ही लिया है याकि
अपने सुखों और दुखों पर
हँसना-रोना छोड़ दिया है।
        -------    सुरेन्द्र भसीन

Thursday, April 12, 2018

द्वंद

द्वंद
हर रोज ही
अनेकानेक बातों पर
दिल और दिमाग आपस में लड़ जाता है
जो हारता है वो
सिकुड़ता-सिमटता है और
जो जीतता है वह फूल कर बड़ा हो जाता है
मग़र सही और गलत का निर्णय तो
वक्त भविष्य में करके बताता है
वैसे जब कभी दिल की मानों तो
वह नुकसान करवाता,हँसी उड़वाता और
जूते खिलवाता है और कभी
दिमाग की मान जाओ तो
सभी इंद्रीयां विद्रोह करती और शरीर के द्वारा
काम करने को इंकार करती हैं...
दोनों के सामंजस्य से ही साइकिल चलता है
वरना इंसान टूट फूट कर
गड्डे में जा पड़ता है....।
------ सुरेन्द्र भसीन

....तुलते-तौलते

....तुलते-तौलते
न जाने क्यों
लगता है मुझे
कि तुम कहीं गये ही नहीं हो
यहीं कहीं हो...
हर वस्तु, पेड़-पौधे, फूल-पत्ती से झाँकते
और मेरी ही नजरों से, आत्मा से
मुझे हर समय तौलते!
आँकते!
अब मेरा सारा जमीर ही रहता है सदा
कैमरे की पैनी निगाह में याकि
स्कैन होता जाता मेरा अस्तित्व...
सांस-सांस, तार-तार
फेफड़ों में बजती, ऊपर नीचे चलती
दिखती है मुझे स्वयं को लगातार...
निर्लेप, निष्पक्ष हो करती
आकलन मेरा,
मेरे कृत्यों का...
तौलती मुझे
तुम्हारी दी शिक्षाऔं पर, आदर्शों पर....
मैं समझ नहीं पाता हूँ कि
कोई ऐसे कैसे बिता सकेगा
लम्बा भरा पूरा जीवन
द्वीज होकर अपनी ही नजरों में
अपने को, देखते..झेलते...
अपनी ही नजरों में
निरन्तर तुलते-तौलते!
------ सुरेन्द्र भसीन

Friday, March 30, 2018

वजूद

वजूद

स्वीकारलो
मुझे ऐसा का ऐसा ही
जैसाकि मैं हूँ
अपने तमाम अवगुणों के साथ....
फिर तुम मेरी
प्रेयसी हो, गुरु  हो  या
चाहे  हो  भगवान !

बिना अवगुणों के
या अवगुण जैसा तो  कभी
कुछ होता ही नहीं
न  धरती... न  आकाश ....  ।

मेरे विशेषगुण ही
अवगुणों में बदल जाते हैं
वक़्त, जरूरत व  दृष्टि
बदलने के साथ  ही  साथ ....

मुझको ऐसे ही
संभालो ! सहेजो !
मेरे इसी वजूद के साथ ... .  ।
     --------             सुरेन्द्र भसीन


मच्छर /कवि

मच्छर /कवि 

कोई नहीं
सुनना चाहता
महान कवि मच्छर की कविताएं
उसके कविता शुरू करते ही
लोग उसे दुर्दुराने लगते हैं
और हाथ हिला हिला कर व
पहलु बदल बदल कर
उसे अपने से दूर हटाने लगते हैं।
जाते जाते फिर भी
वह अपनी रचना की कुछ पंक्तियाँ
आपको सुना ही जाता है
और मरते मरते भी
अपने काम का जोखिम व
अपने हालात आपको
बता ही जाता है....।
------ सुरेन्द्र भसीन   

  

Tuesday, March 27, 2018

उदगार

  उदगार 

 मुझे अब
कुछ न कहना
छूना भी मत
वरना मैं रो दूँगी
और तुम्हें हमेशा के लिए खो दूँगी
उड़ जाऊंगी तुम्हारा पिंजरा छोड़कर
उन्मुक्त गगन में चली जाऊँगी दूर कहीं...
मानती हूँ कि मैं वो पाखी हूँ
जिसे एक पिंजर से प्यार हो गया था
मगर अब रिश्तों की सारी सलाखें तोड़
मैं इस पिंजरे को
सदा-सदा के लिए छोड़ दूँगी...
मुझे अब छूना भी मत
वरना मैं
यह अपना पिंजर भी तोड़ दूँगी...।
--------                               सुरेन्द्र भसीन
           

Monday, March 19, 2018

एक पौधा पश्चाताप का

एक पौधा पश्चाताप का

क्या करें !
अपनी गल्तियाँ, अपने गुनाह
बार-बार मुँह पर आकर फिर -फिर
हमें बेचैन और विचलित करते जाते हैं....
और वक़्त बीत जाने पर हाथ मलने के सिवा
हम कुछ नहीं कर पाते हैं ....
पश्चाताप,ग्लानि तो है और रहेगा भी मगर
उस सजा का क्या ?
जिसके हम हक़दार हो गये हैं
और निर्लज्ज क्रोध में, आवेश में
हम अपने  भविष्य के लिए क्या-क्या बो गए हैं ?
अब हम कितनी ही
पवित्र नदियों-सरोवरों में क्यों न कर लें नहान
याकि कितने भी देवी-देवताओं का क्यों न कर लें ध्यान
जो दुष्कर्म की लकीर हमारे
हाथों की हथेली में खिंच गई है
उसे कोई मिटा न पायेगा और कोई भी
पीरो-फकीर हमारे गुनाह भी कभी बख्शवा न पायेगा ...
अब मन, आत्मा  की शांति के लिए
हमें एक पौधा बौना चाहिए
परोपकार की खाद, धैर्य के जल से सींचकर
उसे बड़ा करना चाहिए
जब वह एक दिन हमारे जितना आदमकद हो जायेगा
तभी, तभी हमारा
पाप का , गुनाह का अहसास  भी
बेअसर हो जायेगा।
                  -----------                  सुरेन्द भसीन 



दूरियाँ - ग़ज़ल


वो हमारे शरीर की दूरियाँ लिख रही थी तो  
मैं कामकाजी मजबूरियाँ लिखता जा रहा था। 
विरह काल था कि लंबा ही होता जा रहा था
तो मिलन लगातार सिमटता ही जा रहा था। 
वो मुझे एक अरसे से न देख पा रही थी   
और मैं भी उसे वर्षों से तरसे जा रहा था
यों तो कहने को कुछ न था फिर भी 
दिल और कागज तो बडा हो गया था मगर 
दिमाग और आकाश छोटा होता जा रहा था। 
               ---------              -सुरेन्द भसीन    

Friday, March 16, 2018

सामाजिकता -ग़ज़ल



मौसम तो था नहीं मगर फूल खिल रहे थे 
हवा भी नहीं थी मगर आदतन पेड़ हिल रहे थे। 
खैंच रहे थे लोग भी मजबूरी की कठिन साँसे 
संबंधों की गांठें लिए बेकार बेवजह ठिल रहे थे। 
कोई जख्म भी न था,  न था कोई रंजो-गम 
मगर फिर भी लोग थे कि घृणा में गल रहे थे। 
कोई मिलने की चाह तक न थी किसी मन में 
मगर लोग सिर्फ शिकवों के लिए मिल रहे थे। 
सबके मन में बोलने को था अपार,
मगर कोई किसी की सुनने वाला न था, 
इसलिए बस बुदबुदाहट में ही होंठ हिल रहे थे।  
तभी तो न मौसम था न हवा थी 
मगर फूल और पेड़ बेवजह हिल रहे थे .... 
              -----------           सुरेन्द्र  भसीन         



Thursday, March 15, 2018

मैं तो एक प्रेम नदी हूँ

मैं तो 
एक बहती हुई 
प्रेम नदी हूँ याकि 
एक गिरता प्रेमप्रपात 
कितने भी दूरह चट्टानों से बने हो तुम 
तुम्हारे अंर्तमन तक को गला कर 
एक दिन बहा ही ले जाऊँगी अपने साथ.... 

कितनी भी हठ करो 
अटके,टिके रहने की अपनी वर्जनाओं के साथ 
चाहे जकड़े, पकड़े रहो अपने अहम के हाथ 
मगर तुम्हें बहना ही होगा,
तुम्हें बहा ही ले जाऊँगी  
एक दिन अपने ही साथ..... 
क्योंकि मैं तो 
एक बहती प्रेम नदी हूँ 
या गिरता एक प्रेमप्रपात....
                  ----------                            सुरेन्द्र भसीन 



Wednesday, March 14, 2018

जवाबदेही

तुम
क्यों गिन रही हो
चुन रही हो
मेरे सफेद निर्दोष शब्दों में से
वैमनस्य के काले कंकर
मेरे शब्दों को
कहे वाक्यों को
क्यों तुमने क्रोधित,गलत अर्थों में ह्रदय से लगाया है....
मेरे कहे शब्द
इतने नुकीले, इतने  कटीले भी न थे
जितने कि तुमने इनसे घाव खाए हैं.....
और उनके ऐसे मतलब भी न थे
कि जितने उनपर तुमने आंसू बहाए हैं...
यह जो
बेमतलब की गलतफहमियां कुकरमुत्ता-सी  पनपी हैं
यह जो गहरी खाइयाँ फटी हैं हमारे बीच
इन्होंने न जाने हमारे कितने वर्ष खाए हैं ....
इनको कोई तीसरा कभी
न समझेगा, न जानेगा।
हम इकठ्ठे थे
        तो  रहेंगे  भी  सदा
यह हमारे मन की आस
हमारा  अंतर्मन ही जानेगा...
आते हैं,
आते ही रहते हैं
ऐसे कई तूफ़ान और  झंझावात जीवन में
मगर उनको हमारा
प्रेम ही उत्तर है
यह हर आनेवाला  वक्त ही जानेगा ...
                -----------                     सुरेन्द्र  भसीन   

Tuesday, March 13, 2018

प्रेम

              प्रेम
मुझे उसने अपनी आँखों में क्या भरा
कि मैंने कशती से किनारा कर लिया।
बहता ही चला गया मैं सातों महासमुद्र
जब उसने अपनी आगोश में भर लिया।
अपने से ही बेगाना हो गया मैं तब जब
उसने मेरे दिल में ही घर कर लिया।
जब उसने पुकारा मेरा नाम नर्म होठों से
अपनी देह में मानों मेरा अहसास भर लिया।
अब कैसे कहूँ मैं इन लरजते लबों से
कि मैंने उससे बेइंतहा प्रेम कर लिया।
------ सुरेन्द्र भसीन

Thursday, March 8, 2018

सामाजिक बोझ

सामाजिक बोझ 


जब 
हम छोटे थे 
हँस लेते थे अपनी मर्जी की हँसी 
रो लेते थे 
गला फाड़ के जब.....
तब भी हम इसी समाज का हिस्सा होते थे 
जो आज हमें 
खाँसने-खंखारने भी नहीं देता अपनी मर्जी से 
लगाता है पहरे उसी समाज के 
जिसे हमने है बनाया 
अपने ही लिए.... 
अब वही बेड़ियाँ बन आया है 
जिसमें मानव मन 
कसमसाया है.... 
    -----------               सुरेन्द्र भसीन   
  

Saturday, March 3, 2018

अधूरापन


अधूरापन

एक सपना
एक चाह
एक चाँद ही
रह जाता है पीछे/करता है पीछा
करता/होता हुआ-सा
अधूरा.....
दिल में
अरमान बना/बसा-सा रह जाता 
बस रोज
दिख-दिख जाता
पास/हाथ
कभी न आता.....
पीछे एक अधूरापन रह जाता
कभी पूरा न हो पाता
फिर .. फिर नया दिन निकल आता
अपने को दोहराता।
        --------   सुरेन्द्र भसीन


जल्दी क्यों है ?


जल्दी क्यों है ?

हर ईंसान
वक्त की गति से
कुछ तेज ही चलना चाहता है
वह पीछे न रह जाए कहीं
कुछ छूट न जाए उससे कहीं
इससे बड़ा घबराता है-
जल्दी-जल्दी चलना-फिरना
जल्दी-जल्दी खाना-पीना
जल्दी छोटे से बड़ा होना
बड़े से बूढ़ा होना,
जल्दी नोकरी
जल्दी से शादी
सब समय से पहले
जल्दी-जल्दी
अपने हाथों सब करते जाना...
वक्त पर कुछ न छोड़ना
घड़ी से पहले...
अशांति में, बेचैनी में, अविश्वास में,
हड़बड़ी में, घबराहट में...
कारण...!
कुछ नहीं पता?
----- सुरेन्द्र भसीन

Monday, February 26, 2018

हालात

हालात
अपनी
सारी कविताओं को
पढ़ो और देखो
क्या इसमें से कोई एक कविता भी
पड़ोसी या श्रोता के साथ
उसके घर जाती है, या
उसके दिल में घर कर जाती है?
माना कि
तुम्हारी सारी की सारी कवितायें
उसको या उसके बारे में ही
कुछ कहती हैं, मगर
क्या कोई उसके
जीवन में कभी रहती है या
उसे याद रहती है?
तुम दूर टीले पर बैठे
एक ढ़ोंगी बाबा-से
इंतजार में हो कि
कोई पहाड़ी चढ़कर आये,
तुम्हें मान दे, तुम्हें पूजे
और प्रार्थना करके
प्रसाद स्वरूप तुम्हारी कविता ले जाये
ताबीज बनाकर पहने और
तुम्हारे सदियों गुण गाये....
मगर तुम यह तय नहीं करते हो
कि तुम्हारी कविता उसके
दुख दर्द में काम आये
उसके सिरहाने भी बैठे और कभी उसके
बगलगीर भी हो जाये।
तुम्हारी कविता में
अब मिठास नहीं है और
उसमें ईश्वर का वास नहीं है
निरा स्वार्थ ही लपलपाता है इसलिए
अब तुम्हें कोई सुनना-पढ़ना नहीं चाहता है और
तुमसे और तुम्हारी कविता से मुँह फेर
पराया हो निकल जाता है।
------- सुरेन्द्र भसीन

Tuesday, February 20, 2018

नानी नदी.…

नानी नदी.…

नाना नहर
और नानी नदी
दोनों ही
एक दूजे के समानन्तर बहते हैं
और उनके बीच बनी
हरित भूमि पर
हम सब मिलकर
पौधों की तरह ही रहते हैं...
यूँ तो
नाना नहर और नानी नदी
बीच बीच में मिला करते हैं...
और न जाने क्या-क्या
बातें कहा-किया करते हैं...
और हम भी
जब चाहे उनसे
प्रेम जल लिया करते हैं...
ऐसे ही
सभी के नाना नानी
सब के दिल में
सदा बहा करते हैं...।
------- सुरेन्द्र भसीन

Tuesday, January 2, 2018

हाँ को न

ज्यादा मीठा बोलने
पर भी
इर्द-गिर्द सिर्फ
कीड़े-मकोड़े ही जमा हो जाते हैं
जो काटते हैं, कौंचते हैं
चाटते हैं और फिर एक दिन
चट ही कर जाते हैं।
क्या आप ऐसा चाहते हैं?
अगर आप अपने लिए
अपने आपको बचाना चाहते हैं तो
जीवन में कभी-कभी
न कहना भी सीख जाईये।
मानो न मानो
न कहने से भी
आपकी हाँ का प्रभाव बढ़ता है
नहीं तो
आपकी हाँ से भी
आपके ढुलमुल रवैया का ही पता चलता है।
इसलिए अगर
चाहते हैं महत्व पाना तो
आपको कभी-कभी न भी
करनी चाहिए।
      -------     सुरेन्द्र भसीन