Thursday, December 13, 2018

न सपने अपने न अपने अपने

अपनों 
से ज्यादा 
सपने कलपाते हैं,
जिंदगी भर दौड़ो 
फिर भी हाथ नहीं आते हैं

दिखते तो हैं पुराना रिश्ता हो जैसे
मगर आकाश में टिमटिमाते तारे
एकटक देखते रहो...
देखते रहो...
पलक झपकते ही
ओझल हो जाते हैं...
बेगाने हो छूट जाते हैं
फिर से बनाने/देखने पड़ते हैं
फिर से शुरू करो
नाराज़ रिश्तों को गाँठना
तारों सा टांकना..
जीवन भर करते रहो वरना
न जाने कब अपने ही सपने हो जाते हैं।
------               सुरेन्द्र भसीन          

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