अपने से प्रश्न करना
इंसान को नहीं आता है
दरअसल इंसान खुद से क्या चाहता है
यह उसे भी पता /समझ नहीं आता है...
दूसरों की सुनने,मानने और कहने में ही
उसका सारा जीवन निकल जाता है....
लोग क्या कहेंगे ?
यह अच्छा लगेगा या नहीं ?
जैसे फालतू जुमलों में फंसा इंसान
अपने से ही पराया का पराया ही रह जाता है
जैसे किराए के मकान में रहता रहे कोई याकि
समाजिक साहूकार का कर्जा चुका रहा हो जीवन भर....
कुछ भी कह लो -
मगर जीवन भर
वह अपने से कभी पूछ नहीं पाता है कि
दरअसल वह अपने से
क्या चाहता है ?
------------- सुरेन्द्र भसीन
इंसान को नहीं आता है
दरअसल इंसान खुद से क्या चाहता है
यह उसे भी पता /समझ नहीं आता है...
दूसरों की सुनने,मानने और कहने में ही
उसका सारा जीवन निकल जाता है....
लोग क्या कहेंगे ?
यह अच्छा लगेगा या नहीं ?
जैसे फालतू जुमलों में फंसा इंसान
अपने से ही पराया का पराया ही रह जाता है
जैसे किराए के मकान में रहता रहे कोई याकि
समाजिक साहूकार का कर्जा चुका रहा हो जीवन भर....
कुछ भी कह लो -
मगर जीवन भर
वह अपने से कभी पूछ नहीं पाता है कि
दरअसल वह अपने से
क्या चाहता है ?
------------- सुरेन्द्र भसीन
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