Thursday, December 13, 2018

जिंदगी से बात

ऐ,
जिंदगी मेरी !
तुम हमेशा अपनी ही करोगी
या कभी कुछ
मेरी  भी  चलने  दोगी ?

जब-जब मैं
अपनी मर्जी की करना चाहता हूँ
तुम मेरे पिछले कर्मों या भाग्य के
रोड़े अटकाते हुए ।
हर बार मुझे
नाक़ामयाबी या मज़बूरी का
अंगूठा दिखती हो।

हर बार
जो भी नया होता है तुम्हारे दम पे
मुझे तो नहीं भाता।
किया तुम्हारा कुछ भी क़सम से
मन मार के ही स्वीकार लेता हूँ मानों
गर्मियों में दान में मिला कंबल।

सच कहता हूँ
अगर क्षण भी मैं
अपने को जी लूँ क़सम से
तो आज़ाद हो जाऊँगा इस भरम से कि- 
तुम मेरी अपनी नहीं हो, 
कसम से।
          -------------        सुरेन्द्र भसीन     
 

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