Thursday, May 17, 2018

पत्नी / पटरी

तुमने कभी
मुझे देखा ही कब है,
सोचा ही कब है? 
तुम तो यूँ ही
हर बार निर्द्वन्द्व गुजर जाते हो मुझ पर से
जैसे पटरी को रौंदती
धड़धड़ाती निकल जाती है कोई मालगाड़ी जल्दबाजी से
लाल लाल आंखे, गर्म गर्म सांसे लिए
अपने काम में, अपने अहम में डूबी
अनजाने गंतव्य की ओर...
तुम्हें कभी परवाह नहीं रही मेरी कि
मैं कितनी अकेली, कितनी सूनी
हो जाती हूँ।
और फिर कितने लंबे समय के बाद
ठंडी, सामान्य हो पाती हूँ
तुम्हारे यूँ बेपरवाह गुजर जाने के बाद...
चाहे तुम यही मानों कि मैं 
लोहे की बनी हूँ
मगर पूरी तरह गरमा जाती हूँ
तुम्हारे, अपने ऊपर से गुजरने के बाद...
तुम्हारी पटरी होकर
तुम्हारी पत्नि होकर !
      ---------  सुरेन्द्र भसीन      

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