एक बेटा ही
देता है पिता की चिता को आग
उसके पूर्ण हो जाने को....
और रह जाता है पीछे उसके
उसका नाम बढ़ाने को,
उसके अधूरे पड़े काम निपटाने को,
परंपरा की पगडंडी को आगे से आगे
बढ़ाते ही जाने को....
इस तरह हम सब भी
हो जाते हैं एक दिन
बरगद या पीपल जैसा कोई वृक्ष
फिर से जलने को, रोपे जाने को
बेटा बनकर
फिर बाप हो जाने को .... ।
------ सुरेन्द्र भसीन
------ सुरेन्द्र भसीन
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