Tuesday, May 22, 2018

जंगल ही है

जंगल ही है 


मैं
दो किनारों में नहीं 
झूलता हूँ कभी देर तक
जल्दी ही उकताकर
कोई एक किनारा पकड़ लेता हूँ
अपने निर्णय का सहारा लेकर...
सही या ग़लत
यह वक़्त ही बताता है आगे चलकर
जब  वह मुझे शहर या जंगल में
छोड़ जाता है।
मुझे तजुर्बे से मालूम है कि
आदमखोर तो रहते हैं दोनों ही ओर
जो मुझे चैन से जीने तो नहीं देंगे
कभी किसी भी ओर...
खतरा भी एक समान ही है दोनों ही ओर..
फिर अनिर्णय में
गोते लगाने का लाभ नहीं कोई
झूझने को सदा तैयार रहो तो
निकल चलो, बढ़ चलो
आँख मूंद के
जंगल हो या शहर
किसी भी ओर...।
        -----     सुरेन्द्र भसीन

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