कूड़ा कचरा
गन्द ही पड़ा हुआ है
भीतर बाहर सब तरफ
बुहारते, उठाते, संभालते
थक ऊब ही जाते हैं
फिर कहाँ निकालें?
कहाँ फैंके, गिराएँ?
समझ नहीं पाते हैं...।
जिधर देखो
बदबू का भरा बोरा है जा रहा...
उठता, बैठता, बोलता...
कोई अच्छी सोच नहीं
कोई अच्छी बात नहीं...
कचरा बनाने में,
कचरा फैलाने में
इतना हर कोई व्यस्त कि
अपने को साफ नहीं कर पा रहा...
बड़ा आदमी हुआ तो मायने
बड़ा कचरा फैला रहा...
भीतर बाहर से
समाज कूड़ा-कचरा घर
हुआ जा रहा....।
------ सुरेन्द्र भसीन
गन्द ही पड़ा हुआ है
भीतर बाहर सब तरफ
बुहारते, उठाते, संभालते
थक ऊब ही जाते हैं
फिर कहाँ निकालें?
कहाँ फैंके, गिराएँ?
समझ नहीं पाते हैं...।
जिधर देखो
बदबू का भरा बोरा है जा रहा...
उठता, बैठता, बोलता...
कोई अच्छी सोच नहीं
कोई अच्छी बात नहीं...
कचरा बनाने में,
कचरा फैलाने में
इतना हर कोई व्यस्त कि
अपने को साफ नहीं कर पा रहा...
बड़ा आदमी हुआ तो मायने
बड़ा कचरा फैला रहा...
भीतर बाहर से
समाज कूड़ा-कचरा घर
हुआ जा रहा....।
------ सुरेन्द्र भसीन
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