निरमुण्ड!
दिशाहीन!
भीड़ में से ही
उठती/बनती है कोई निर्देशित आवाज
और भीड़ आश्वस्त होकर
करने लगती है अनुसरण उसका
मगर कुछ दूर जाकर ही
वह भी पुराने ढर्रे, सड़क,परिपाटी पर
उतर/बिक जाती है या
संसद की ओर मुड़ जाती है।
जनता फिर फिर ठगी जाती है जैसे
पूंछ के पीछे चलती कोई साँपिन
झाड़ियों में उलझ पुलझ जाती है और
जनता की नये की/आराम की प्यास
अधूरी ही रह जाती है।
उसे मर्गमरीचिक में और ज्यादा
कल्पाती ,दौड़ाती ...
------ सुरेन्द्र भसीन
दिशाहीन!
भीड़ में से ही
उठती/बनती है कोई निर्देशित आवाज
और भीड़ आश्वस्त होकर
करने लगती है अनुसरण उसका
मगर कुछ दूर जाकर ही
वह भी पुराने ढर्रे, सड़क,परिपाटी पर
उतर/बिक जाती है या
संसद की ओर मुड़ जाती है।
जनता फिर फिर ठगी जाती है जैसे
पूंछ के पीछे चलती कोई साँपिन
झाड़ियों में उलझ पुलझ जाती है और
जनता की नये की/आराम की प्यास
अधूरी ही रह जाती है।
उसे मर्गमरीचिक में और ज्यादा
कल्पाती ,दौड़ाती ...
------ सुरेन्द्र भसीन
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