Thursday, June 14, 2018

बेटे चाहो या बेटियाँ

असल
इच्छाएँ हमारी बेटे नहीं
बेटियाँ ही होती हैं
जो बड़ी होते ही, फलीभूत होते ही
किसी और की हो जाती हैं,
हमें छोड़ जाती हैं....
और बेटे ?
ठूँठ के ठूँठ!
खड़े बाँस के बाँस
हमेशा के लिए ही
पास पड़े रह जाते हैं
बुढ़ापे की लाठी बने
तो बन गए
वरना आखिर तक
हमें जलाने के ही काम आते हैं...।
कौन है अपना?
कौन है पराया?
धरती के सारे रिश्ते
देह के साथ यहीं खत्म हो जाते हैं...।
अकेले आये थे कभी
हम अकेले ही गुजर जाते हैं...
जोड़ तोड़ के चक्कर में
हम जुड़ते तो नहीं कभी
बस टूटते ही चले जाते हैं...
बिखरते ही चले जाते हैं।
         ------      सुरेन्द्र भसीन





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