जब भी जब भी
मैं तुम्हारी-हाँ या न
आँखों से पढ़ना चाहता हूँ तो
कुछ उल्टा ही पढ़ समझ जाता हूँ।
जब भी मैं
नहाने की लिए तुम्हारी
आँखों से अथाह शीतल जल के झरने चाहता हूँ तो
न जाने क्यों
सूखे,
रेगिस्तान में
पहुँच संशय के अंधडों में
अपने को घिरा पाता हूँ।
और यूँ ही जब भी
मैं लम्बे हरे भरे बाग में
तुम्हारे संग विचरना चाहता हूँ तो
स्वयं को
खारे पानी के समुद्र में
घिनौने प्रश्नों के जलीय जीवों से
अपने को घिरा पाता हूँ।
मैं तुम्हारी आँखों के
सही व गलत के कुतर्कों में
फँसना नहीं चाहता हूँ।
बस तुम्हारी आँखों से,
तुम्हारे मौन से,
तुम्हारे मन में उतरना चाहता हूँ।
------ सुरेन्द्र भसीन
मैं तुम्हारी-हाँ या न
आँखों से पढ़ना चाहता हूँ तो
कुछ उल्टा ही पढ़ समझ जाता हूँ।
जब भी मैं
नहाने की लिए तुम्हारी
आँखों से अथाह शीतल जल के झरने चाहता हूँ तो
न जाने क्यों
सूखे,
रेगिस्तान में
पहुँच संशय के अंधडों में
अपने को घिरा पाता हूँ।
और यूँ ही जब भी
मैं लम्बे हरे भरे बाग में
तुम्हारे संग विचरना चाहता हूँ तो
स्वयं को
खारे पानी के समुद्र में
घिनौने प्रश्नों के जलीय जीवों से
अपने को घिरा पाता हूँ।
मैं तुम्हारी आँखों के
सही व गलत के कुतर्कों में
फँसना नहीं चाहता हूँ।
बस तुम्हारी आँखों से,
तुम्हारे मौन से,
तुम्हारे मन में उतरना चाहता हूँ।
------ सुरेन्द्र भसीन
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