कैसा?
कैसा लगता है
अपने ही घर में
अपनों से युद्ध लड़ते हुए?
हार-जीत का
फैंसला करते हुए?
महाभारत के किसी खलनायक में ढलते हुए...
ये तेरा, ये मेरा करते हुए
अपने अहं की वजह से
अपने ही घर मे
अपने वजूद को सिद्ध करने का
प्रयत्न करते हुए...?
प्रेम,लगाव या स्नेह तो मानों
कहीं वाष्पित ही हो जाता है तब
नज़र में केवल
मैं, मेरा औऱ मुझको ही भर जाता है तब...
कठोर पत्थर पर चोट पड़े तो वह भी
टूट-फूट जाता है मग़र
अहं तो चमकते हीरे का बना है
अपनी चमक, अपने दाम
सभी को तब जरूर दिखलाता है और
किसी भी भारी भरकम प्रहार से भी
टूट नहीं पाता है...
....... सुरेन्द्र भसीन
कैसा लगता है
अपने ही घर में
अपनों से युद्ध लड़ते हुए?
हार-जीत का
फैंसला करते हुए?
महाभारत के किसी खलनायक में ढलते हुए...
ये तेरा, ये मेरा करते हुए
अपने अहं की वजह से
अपने ही घर मे
अपने वजूद को सिद्ध करने का
प्रयत्न करते हुए...?
प्रेम,लगाव या स्नेह तो मानों
कहीं वाष्पित ही हो जाता है तब
नज़र में केवल
मैं, मेरा औऱ मुझको ही भर जाता है तब...
कठोर पत्थर पर चोट पड़े तो वह भी
टूट-फूट जाता है मग़र
अहं तो चमकते हीरे का बना है
अपनी चमक, अपने दाम
सभी को तब जरूर दिखलाता है और
किसी भी भारी भरकम प्रहार से भी
टूट नहीं पाता है...
....... सुरेन्द्र भसीन
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