Thursday, October 4, 2018

बढ़ना

बढ़ना
तो सभी को है
आगे ही आगे
अपनी-अपनी चाहत लिए
उम्मीद के वरक्ष पर
लताओं-सा लिपटकर
याकि तरक्की के रास्तों पर
एक-दूजे को धकियाते-धकेलते
एक-दूजे पर पांव रख-रखकर,
प्रतियोगिता व द्वंद युद्ध-सा करते- कराते...
ज़माना अभावों का है
एक-एक उम्मीद व्रक्ष पर
अनगिनत लताएं हैं चिपटीं
घुन को भी मात देतीं...
कौन जाने किसको?क्या चाहिए?
याकि किसको? क्या-क्या नहीं चाहिए।
सब
उम्मीद के व्रक्ष पर
लताओं से लिपटे हैं
बढ़ते-चढ़ते
एक-दूजे से आगे बढ़ने की,
अधिक पाने की होड़ हैं
करते!...
          ------        सुरेन्द्र भसीन

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