सामाजिक बोझ
जब
हम छोटे थे
हँस लेते थे अपनी मर्जी की हँसी
रो लेते थे
गला फाड़ के जब.....
तब भी हम इसी समाज का हिस्सा होते थे
जो आज हमें
खाँसने-खंखारने भी नहीं देता अपनी मर्जी से
लगाता है पहरे उसी समाज के
जिसे हमने है बनाया
अपने ही लिए....
अब वही बेड़ियाँ बन आया है
जिसमें मानव मन
कसमसाया है....
----------- सुरेन्द्र भसीन
जब
हम छोटे थे
हँस लेते थे अपनी मर्जी की हँसी
रो लेते थे
गला फाड़ के जब.....
तब भी हम इसी समाज का हिस्सा होते थे
जो आज हमें
खाँसने-खंखारने भी नहीं देता अपनी मर्जी से
लगाता है पहरे उसी समाज के
जिसे हमने है बनाया
अपने ही लिए....
अब वही बेड़ियाँ बन आया है
जिसमें मानव मन
कसमसाया है....
----------- सुरेन्द्र भसीन
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