Thursday, March 8, 2018

सामाजिक बोझ

सामाजिक बोझ 


जब 
हम छोटे थे 
हँस लेते थे अपनी मर्जी की हँसी 
रो लेते थे 
गला फाड़ के जब.....
तब भी हम इसी समाज का हिस्सा होते थे 
जो आज हमें 
खाँसने-खंखारने भी नहीं देता अपनी मर्जी से 
लगाता है पहरे उसी समाज के 
जिसे हमने है बनाया 
अपने ही लिए.... 
अब वही बेड़ियाँ बन आया है 
जिसमें मानव मन 
कसमसाया है.... 
    -----------               सुरेन्द्र भसीन   
  

No comments:

Post a Comment