Friday, March 16, 2018

सामाजिकता -ग़ज़ल



मौसम तो था नहीं मगर फूल खिल रहे थे 
हवा भी नहीं थी मगर आदतन पेड़ हिल रहे थे। 
खैंच रहे थे लोग भी मजबूरी की कठिन साँसे 
संबंधों की गांठें लिए बेकार बेवजह ठिल रहे थे। 
कोई जख्म भी न था,  न था कोई रंजो-गम 
मगर फिर भी लोग थे कि घृणा में गल रहे थे। 
कोई मिलने की चाह तक न थी किसी मन में 
मगर लोग सिर्फ शिकवों के लिए मिल रहे थे। 
सबके मन में बोलने को था अपार,
मगर कोई किसी की सुनने वाला न था, 
इसलिए बस बुदबुदाहट में ही होंठ हिल रहे थे।  
तभी तो न मौसम था न हवा थी 
मगर फूल और पेड़ बेवजह हिल रहे थे .... 
              -----------           सुरेन्द्र  भसीन         



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