Thursday, March 15, 2018

मैं तो एक प्रेम नदी हूँ

मैं तो 
एक बहती हुई 
प्रेम नदी हूँ याकि 
एक गिरता प्रेमप्रपात 
कितने भी दूरह चट्टानों से बने हो तुम 
तुम्हारे अंर्तमन तक को गला कर 
एक दिन बहा ही ले जाऊँगी अपने साथ.... 

कितनी भी हठ करो 
अटके,टिके रहने की अपनी वर्जनाओं के साथ 
चाहे जकड़े, पकड़े रहो अपने अहम के हाथ 
मगर तुम्हें बहना ही होगा,
तुम्हें बहा ही ले जाऊँगी  
एक दिन अपने ही साथ..... 
क्योंकि मैं तो 
एक बहती प्रेम नदी हूँ 
या गिरता एक प्रेमप्रपात....
                  ----------                            सुरेन्द्र भसीन 



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