हम जिसे
प्रेम कहते हैं न!
बहुतों के लिए कुछ नहीं है
वासना के सिवाय...
जिम्मेवारी रहित भोगने की एक प्रक्रिया
उलीचना-उलटना मात्र...
दिनभर की समाज से इकठ्ठी हुई
सड़ांध उतारने का प्रयास...
क्या किसी काम आता है?
महज काई कीचड़ जमा काला बदबूदार पानी..
सामाजिक परनाले में बहने
आ जाता है...
संतान, औलाद कहलाता है
यूँ ही आने वाले
रीढ़ विहीन समाज का
निर्माण होता जाता है।
------- सुरेन्द्र भसीन
प्रेम कहते हैं न!
बहुतों के लिए कुछ नहीं है
वासना के सिवाय...
जिम्मेवारी रहित भोगने की एक प्रक्रिया
उलीचना-उलटना मात्र...
दिनभर की समाज से इकठ्ठी हुई
सड़ांध उतारने का प्रयास...
क्या किसी काम आता है?
महज काई कीचड़ जमा काला बदबूदार पानी..
सामाजिक परनाले में बहने
आ जाता है...
संतान, औलाद कहलाता है
यूँ ही आने वाले
रीढ़ विहीन समाज का
निर्माण होता जाता है।
------- सुरेन्द्र भसीन
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