Wednesday, December 27, 2017

सच का भूत

सुबह
सच ने कहा कि
आज मैं तुम पर आया हूँ
सारा दिन तुममें ही रहूंगा
और आज तुम वही बोलोगे
जो मैं तुमसे कहूँगा....

अब सच तो पुरानी ऐतिहासिक वस्तु है
आजकल के आधुनिक युग में सच कौन कहता है
सच तो आजकल किताबों में रहे यही अच्छा रहता है  ....
अब सोचो
मैं सच किसे कहूंगा -
बीवी को, पड़ोसी को या बॉस को ?           
और इन्हें सच कहकर क्या मैं
जाकर किसी जंगल या पहाड़ पर रहूंगा ?
चलो मैं तो कह भी दूँ
मगर क्या वह सह लेंगे -
कि पत्नी तुम सुंदर नहीं हो,
कि पड़ोसी तुम कमीने और जल्लाद हो,
कि मालिक तुम  मुझ निरीह बेजुबान पक्षी को
अपनी नौकरी में फंसाने वाले
काले-कलूटे कंजूस सय्याद हो.....!
हे सच!
तुम तो जीवन में
मुझपर एक दिन ही आओगे
मगर सदियों के लिए मेरा
बेड़ा गर्क कर जाओगे।
अच्छा हो,
तुम मुझ गरीब को न सताओ
और जहां से चले थे
वहीं लौट जाओ !
       --------- सुरेन्द्र भसीन


नफा-नुकसान ग़ज़ल

न नफा हुआ न नुकसान हुआ
बस हमारी वफ़ा का इम्तहान हुआ।
न हम हारे न जमाना जीता 
बस अपनी हैसियत का गुमान हुआ।
न जंगल कटा न बस्तियाँ बसीं
बस इलाका ही वीरान हुआ।
न नफरत घटी न मोहब्बत बड़ी
बस हसरतों का ही नुकसान हुआ।
चुप रहकर जो हमें रुसवा न किया
बस हम पर बड़ा अहसान हुआ।
----- सुरेन्द्र भसीन    

नालायक फल

नालायक फल 

वृक्ष पर डाल से 
लगा हुआ एक नालायक फल 
बड़ा कसमसा रहा था 
पकने से पहले 
डाल से छूटकर  
धरती पर आना चाह रहा था 
ऊपर से धरती की रौनक,
चहल-पहल उसे भरमाती थी,
धरती की भाग-दौड़, चकाचौंध उसे आकर्षित करती ही जाती थी। 
वह बार-बार ईश्वर से 
जल्दी नीचे भेजने की जिद करता और 
भगवान उसे समझाते कि 
अभी तुम बच्चे और कच्चे हो 
नीचे गिरने की चोट तुम 
सह न पाओगे 
गिरते ही, दाना-दाना होकर टूट-बिखर जाओगे
तनिक सब्र करो 
रूप अपना संवरने दो
देह अपनी पकने दो। 
एक दिन स्वयं माली आयेगा 
तुम्हें डाल से तोड़ेगा, 
पोंछेगा, पुचकारेगा 
डलिया में रखकर ले जायेगा ,
लारी में घुमायेगा,
बाजार में रेहड़ी पर टहलायेगा,
प्यार से कोई गृहणी के संग किसी के घर जाओगे,
परिवार तुम्हें बांटेगा, खायेगा 
और यूँ तुम्हारा जीवन पूरा हो जायेगा। 
मगर उसकी तड़प और बेचैनी देखकर 
भगवान ने उसे वक़्त से पहले 
नीचे टपका दिया 
धड़ाम से गिरते ही चोट लगी 
शरीर पर जख्म और गुमड़ आ गया 
हिलडुल न सका,
पत्ते, मिट्टी, पत्थर उसपर लगातार पड़ने लगे 
कीचड़ में वह सनता गया 
और फिर एक दिन सड़ गल के 
किसी जानवर के पाँव के नीचे आ गया। 
कुछ न मिला 
भ्र्रमित था वह 
भ्र्रम -सा जीवन पा गया।  
          -------- सुरेन्द्र भसीन 
















Wednesday, December 20, 2017

"प्रश्नों का सवाल"

प्रश्नों से, सवालों से
हम सदा चिंहुककर भागते हैं
हम कभी
उनके भीतर, उनकी तली में
नहीं झाँकते हैं
जबकि प्रश्नों के,सवालों के
केंद्र में, ठीक बीच में ही
उत्तर पड़े होते हैं-
सुलझने को/खिलने को आतुर...
मगर हमेशा हम
बाहर -बाहर, दूर-दूर भागते हैं
और प्रश्नों को
अपना दुश्मन, ऊँची दीवार ही आंकते हैं....
जबकि प्रश्न राह बनाते/दिखाते हैं
सच मानों
तो वही दिशा संकेत/निर्देश हैं
जो हमें मंजिल का
पता बताते हैं।
  --------     सुरेन्द्र भसीन

Sunday, December 17, 2017

"नासमझी"

मैं !
जीवन में बड़ी योजना बनाकर चलता हूँ
समझदारी से, वक़्त जरूरत का
हिसाब लगाकर चलता हूँ ....
ऐसा वे सभी कहते हैं
जो मेरे साथ रहते हैं।
मगर फिर भी
हालातों के सामने मैं 
विवश खड़ा रह जाता हूँ
जैसे उच्चाधिकारी से अधिक समझदारी दिखाकर
आप प्रशंसा तो पा सकते हैं मगर तरक्की नहीं।
ठीक उसी तरह
वक़्त भी मुझे हर बार यही कहता है -
कि तुम अच्छे हो
कि तुम सच्चे हो
मगर जाओ बैठ जाओ अपनी सीट पर
अपनी तुम
न  समझ  बच्चे  हो !
     --------------           -सुरेन्द्र भसीन

"जिंदगानी" पंजाबी कविता

"जिंदगानी"  पंजाबी  कविता 


औ !
हनेरियों टुटा 
मीं विच भिज्या पेड़ सिगा 
राह विच ऐनज डिग्या 
जिवें कोई वडेरा 
पता नईं की की बड़बड़ान्दा 
ओथे ही पया रह गया 
उम्रः तों हारया
उठ न सक्या होय।

औ !
हल्ली गिल्ला सिगा
ओंदे विच पाणी सिगा
ते कतिला दी नजर दी रडक बनया
अपने तेज कुल्हाड़े करदे
कि कदों
मोया मुक्क्न नूं होये
ते होदे टोटे-टोटे करिये
ते अपनी
भुख विच भरिये !
 -----------            -सुरेन्द्र भसीन




















Monday, December 4, 2017

ये चूहे महंगाई के

ये चूहे महंगाई के
रूई की रजाई को
हर साल ही
कुतर जाते हैं मंहगाई के चूहे
चाहे कितनी भी संभालो
नयी बनवानी ही पड़ती है हरबार
तेज चलती हवाएं या
टमाटर,आलू,प्याज के भाव
भीन्ध जाते हैं
बजट को/बदन को।
मजदूर की मजदूरी को
उसकी मुट्ठी में ही सिकोड़ जाते हैं
उसकी सुविधाएं कुतर जाते हैं
महंगाई के ये चूहे।
------- सुरेन्द्र भसीन

Tuesday, November 28, 2017

जीवन यात्रा

कुछ चीजें
संबंध या घटनाएं भी
जो जीवन में पीछे छूट जाते हैं
वो फिर अगले जीवन में ही
दुबारा ठीक हो पाती हैं/पूरी हो पाती हैं
जैसेकि
यात्रा में पीछे छूट चुका
कोई शहर,बसअड्डा या रेलवेस्टेशन
पूरा चककर घूमने के बाद ही लौट के आता है वरना
कोई विरला ही होता है
जो उतरकर पीछे जाता है
अपनों को लाने
उनका साथ निभाने।
कई बार रुककर, उतरकर
साथी को लाने की कोशिश में
देरी भी जो हो जाती है
अपनी भी गाड़ी छूट जाती है।
अगर गंतव्य/अंत निश्चित हो एक ही सभी का
तो गति या जल्दी कोई काम नहीं आती है -
क्या फर्क पड़ता है कि कोई कैसे आता है ?
यात्रा तो सभी की पूरी हो ही जानी है प्रत्येक की
भागने से, जल्दी करने से
संबंध और संबंधी ही टूट-छूट जाते हैं लगातार
इकठ्ठे नहीं रह पाते हैं।
मंजिल तक पहुंचते हैं
हम अकेले
थके -टूटे-हारे कांपते ही रह जाते हैं
हाँफते ही रह जाते हैं।
       --------          सुरेन्द्र भसीन


















सरल,साधारण, सामान्य

मुश्किल
बड़ा और  महान
करने की  फ़िराक  में -
सरल,साधारण, सामान्य कुछ
छोड़ा ही नहीं है
हमने इस संसार में
ऐसा  करके बिना वजह
हम एक दूसरे को
अनचाही प्रतियोगिता की ओर
धकेलते-धकियाते हैं और
हम सब जीने आए हैं या दौड़ने
हम यही भूले जाते हैं।
या यूँ कहें
हम असमान्य,असहज और
बीमार समाज का
निर्माण करते जाते हैं !
                -----------          सुरेन्द्र  भसीन 

Sunday, November 26, 2017

"एक पेंटिंग मजबूर लड़कियों की"

पटरियाँ हों
याकि सड़कें
पीछे ही छूटीं रह जाती हैं
उपयोग होकर सुनसान.....
अपने ऊपर से
हवस के भारी भरकम
वाहनों के गुजर जाने के बाद 
धुँआती, पिघलती जिंदगी,
लंबी-लंबी गर्म साँसे लेती अवश... बेबस ....।
होता ही रहता है उनके साथ सदा 
यही सब कुछ
उनके उखड़ने, टूटने
टूट के बिखर जाने तक
अनचाहा
बार बार लगातार......
      --------------            सुरेन्द्र भसीन

Sunday, November 19, 2017

ये दूरियाँ

एक  दूजे  की
खूबियाँ, समझदारियाँ और अच्छाइयाँ
ढूंढ़ते चाहते ही चले थे हम
एक साथ जीवनयात्रा के शुरूआती छोर से
आनंद पगे, उल्लास भरे.....
और
एक दूजे की
बुराइयाँ, नादानियाँ और कुरुपतायें
न जाने कब से ढूंढ़ने लगे हम
निराशा से भरभराकर
जीवनयात्रा के इस छोर तक आते-आते.....
यह हमारी
प्रौढ़ता है या बचपना ?
हमने सीखा जीवन भर या खोया ?
पाया है या गंवाया है ?
कुछ समझ नहीं आया है....?
     --------------             सुरेन्द्र  भसीन 

Thursday, November 16, 2017

शहर नहीं रहे रहने के लिए

शहर तो 
अब शहर नहीं रहे 
सुरक्षित निवास। 
श्मशान हो गए हैं-
दमघोंटू जहरीली गैसों के डैथ्चेम्बर 
छोड़ दो जल्दी से इन्हें  
लौट चलो 
पहाड़ों में,
खेतों में,
जंगलों में,
प्रकृति की पनाह में   
सांस लेने के लिए 
जीवन जीने के लिए। 
   -----------        सुरेन्द्र भसीन 

शोर ...शोर ... और बस शोर है।

इस भीड़तंत्र में 
कोई भी नहीं है 
अपने भीतर बसा हुआ 
सभी तैश में,स्वार्थ में बौराये हुए 
सब तरफ जैसे टनटनाती घंटियों का ही 
शोर ...शोर ... और बस शोर है। 
एक-सी आवाजें   
लड़ती घंटियों की टकराहटें कर्कश 
सुनना नहीं चाहता कोई 
मगर आवाजें सब ओर हैं ....
नहीं टकराना चाहते 
रुकना चाहते हैं मगर 
रुक नहीं पाते हैं। 
आख़िरी में बाहर से 
बाहर ही विदा हो जाते हैं। 
     ------          सुरेन्द्र भसीन  

Monday, November 13, 2017

प्रकृति एक प्रेम गीत

एक बादल 
पानी का भरा हुआ
आकाश में मंडरा रहा था।
धरती के सूखे टुकड़े को देखकर
उस पर बरसना चाह रहा था।
मगर हवा के हिचकौलों में
मौका नहीं पा रहा था।
उधर धरती भी उसके इरादों से
नावाकिफ नहीं थी।
वह  भी आँखों ही आँखों से इशारे करते जा रही थी।
बादल अपनी चाह से उसे सराबोर करदे
ऐसा मन ही मन चाह रही थी।
पर कहती कैसे ?
समाज से जो शरमा रही थी,
अपनी भावनाएं कह नहीं पा रही थी।
फिर बादल ने मौका पाया और
नीचे गोता लगाया
अपना प्रेमजल धरती पर बरसाया।
धरती का तन भीगा,मन भीगा
उसके अंग-अंग में, रोम-रोम में अंकुर फूटे
यों धरती ने गगन का प्रेम है पाया।
              --------           सुरेन्द्र भसीन









दिमाग है पेपरवेट

यह जो 
दिमाग है न 
दिल का पेपरवेट है.....पेपरवेट। 
जब दिल लापरवाही में ज़रा फड़फड़ाना चाहता है 
तो दिमाग उसे सोच से दबाता है,
दिल कहीं फौरी सफलताओं से बोरा न जाये 
इसलिए बड़े बुजुर्गों की तरह इसे समझाता है। 
तुम यह करते तो यह हो जाता,
तुम वह करते या वहाँ पहुंच जाते तो वह हो जाता 
जैसे भारी भरकम जुमले 
लगालगाकर सदा उसे दबाता है 
हंसने, जीने, जीत का जश्न मनाने के वक़्त भी 
उसे सीखों से रोता, कलपाता है। 
अच्छा  हो 
दिमाग के भी दायरे बांधो !
उसे कभी दिल कब्जाने मत दो,
दिल को दिल ही रहने दो उसे 
दिमाग बन जाने मत दो। 
         ---------    सुरेन्द्र भसीन 

Monday, November 6, 2017

आभागा मैं

अब तो
हर बार ही 
यह हुआ है कि मैंने 
जब-जब तुम्हें छुआ है 
तो मुझे 
पत्थर का अहसास हुआ है।  
हर बार तुम्हारी निराशा,चुप्पी, उदासीनता ही 
महज मुझ तक हस्तांतरित हो, 
मुझे भीतर से भारी कर जाती है।  
मैं जो जमाने भर से 
भर-भरा कर 
तुमसे बतियाने,लिपटने, खाली होने आता हूँ 
मगर उल्टा भारी बोझ होकर लौट जाता  हूँ।  
ऐसे बैरंग-अवश लौटा मैं 
परिस्थितियों से संघर्ष नहीं कर पाता हूँ 
जमाने को जवाब नहीं दे पाता हूँ।  
सहज नहीं रह पाता हूँ और 
दिनोदिन चिड़चिड़ा होता जाता हूँ
हार ... हारता ही जाता हूँ ....। 
मगर मैं 
कितना अभागा 
किसी को कुछ कह भी नहीं 
पाता हूँ। 
    ----------        सुरेन्द्र  भसीन            


Saturday, November 4, 2017

मुझसे पूछना महज दस्तूर था तुम्हारा 
करनी तो तुमने अपने मन की ही थी 
बातों में उलझाकर मुझको 
रखनी टांग मुझ पर ही थी 
बात अपनी मनवाने का 
यह तुम्हारा महज स्वांग ही था 

Wednesday, November 1, 2017

विज्ञान की सीख

विज्ञान ने
हमें समझाया है कि
देवी-देवता कुछ नहीं
एक साधारण इस्त्री-पुरुष ने हमें जाया है...
पाप-पुण्य भी बेकार है।
डांट-डपट,आर्थिकता और भय पर ही
टिका और चलता यह सारा संसार है।
लेन-देन यहीं तक है बस
आगे सब कुछ खत्म,
बड़ा वाला शून्य या निरा अंधकार है।
अब यह सीधा हिसाब
हमें समझ तो आता है
हमें लूट-खसोट,मार-काट की ओर ले जाता है
और आखिर में हमें
प्रयाश्चित के जलते-कल्पते
जंगल में छोड़ ही जाता है। 
          -----------              सुरेन्द्र  भसीन      


हम सारे पत्थर

सारे के सारे पत्थर
थोड़े न पूजे जाते हैं 
न ही तुम्हारी कामनाएं ही पूरी कर पाते हैं 
अधिकतर तो 
मारने के काम ही आते हैं या 
राह में पड़े फूटते-फोड़ते ही 
अपना जीवन बिताते हैं 
देवता नहीं बन पाते हैं किसी के लिए। 
पूजा के पत्थर तो स्थापित होते हैं आस्था से 
उन्हें फूंकना होता है मंत्रोच्चार से
मंदिर मेँ देवता स्वरूप बैठाना पड़ता है तभी 
फिर वह तिलिस्म हो जाते हैं 
भगवान की तरह 
काम आते हैं। 
तुम्हारी इच्छाएं पूरी कर पाते हैं। 
           -------         सुरेन्द्र भसीन 
  


Sunday, October 29, 2017

....यान है दिमाग

सबसे बड़ा
हथियार, औजार और यान है दिमाग।
जो हमारे सो जाने पर भी
नहीं सोता है
और वक़्त की तरह
दिन-रात अनवरत चलता है।
हमारे न चाहने पर भी
हमें कहाँ-कहाँ घुमाता है
हमारे सो जाने पर भी
क्या-क्या कर जाता है।   
हमारे चुप रह जाने पर भी बड़ा बोलता है
लड़ता है, झगड़ता है , भीतर-बाहर
पुरानी तोड़ता और नयी-नयी घड़ता है।
क्षण भर में जन्मों-सदियों पीछे तो
पलभर में आगे कल्पनाओं के नये लोक में हमें घुमाता है।
वश में रहे तो
इंसान बुलंदियों पर
बेवश हो जाये तो
इंसान को पागल कर
रसातल में मिलाता है।
         -----------           सुरेन्द्र  भसीन

सभ्यता की आड़ में

कोई नहीं पहनता कपड़े
सिर्फ एक इंसान के सिवा
वह भी किससे ?
क्या छुपाना चाहता है ?
क्यों वह जैसा है
वैसा नजर नहीं आना चाहता है ?
क्यों वह अपने आप से डर जाता है ?
अपने काले कारनामों, कमजोरियों,नाकामयाबियों को
अपनी श्रेष्ठता व सभ्यता की आड़ में
छुपाता है ? और  अपने
दिमागी हथियार से सभी को डराता  है।
वो अपने को कितना भी तर्क पूर्ण बना ले
प्रकृति के आगे
निकृष्ठ ही सिद्ध होएगा।
हो न हो
अपने दिमाग के कारण ही
वह एक न एक दिन
इस धरती से अपने
अस्तित्व को खोएगा।
         ----------       सुरेन्द्र  भसीन


ज्ञान

एक
मछली की
तडप-फड़फड़ाहट पर भी
सब चुप हैं।
कोई उसे क्यों नहीं बताता-समझाता
कि पूरा मुँह खोलने पर ही
मछली के मुँह में कभी समुद्र
नहीं समाता।
कि पानी में रहने भर से
पानी अंदर नहीं चला जाता।
उसे खींचना पड़ता है -
साँस दर साँस
जैसे कोई नवजात
धीरे-धीरे थनों से दूध चूसता-चुघलता हो ऐसे।
ज्ञान भी
किताबें खोलने भर से, बांचने भर से ही नहीं आता
अंजुरी-अंजुरी लीलकर
मथना पड़ता है
देवता  स्वरूप मनाना पड़ता है
आग्रह से बैठना पड़ता है।
           -------------           सुरेन्द्र भसीन



समेटते-सिमटते

कितना 
कितना चाहता हूँ मैं 
कि लोगों में बसा रहूँ 
और लोग मुझमें। 
मगर ऐसा चाहकर भी 
हो नहीं पाता है -
मैं बार-बार लोगों से बाहर निकल जाता हूँ अकेला। 
और लोग भी मुझ से बाहर हो जाते हैं 
मुझे छोड़कर वीरान-सुनसान।
फ़ैल जाता है एक 
शून्य का रेगिस्तान 
भीतर से बाहर तक 
अपने को 
समेटते-सिमटते।
       ---------    सुरेन्द्र भसीन        

Saturday, October 28, 2017

कुछ बूढ़े
काले कौवे हैं
ऊँची डालों पर बैठे हुए
आँखों से नया देख-पढ़ नहीं
पा रहे हैं, 
पँख उनके झड़ चुके,
उड़ भी नहीं पा रहे हैं।
अपनी अपनी डाल से चिपके
काँव काँव करके बस
ककर्ष शोर मचा रहे हैं,
डर भी रहे हैं
डाल जो पंजो से छूटे जा रहे हैं इसलिए
नोजवानों को तरह-तरह से
भटका-भरमा रहे हैं और कहते हैं-
सुनो सब! 
हम नयी सुबह का गीत सलौना गा रहे हैं...
झूमो! 
हम नाचने जा रहे हैं...
सीखो!
तुम्हें उड़ना सीखा रहे हैं...? 
       -------     सुरेन्द्र भसीन


Tuesday, October 24, 2017

....फिर एक दिन

पहले भी  कभी
हम सभी थे यहीं
इस शून्य में ,वातावरण में
बस नजर नहीं आते थे.... 
देख पाते थे सभी  कुछ
बोल या उसमें शामिल नहीं हो पाते थे... 
फिर हमारा जन्म हुआ
हम वजूद में आए,
खाने लगे, गाने लगे
चलने लगे , बतियाने लगे ...
अब फिर होगा कभी
एक दिन
हम इस महाशून्य में घुल जाएंगे
विचरेंगे यहीं कहीं
देखेंगे सब कुछ
मगर कह नहीं पाएंगे ...
तो क्या ?
          ---------          सुरेन्द्र भसीन 

वक़्त एक आईना

गीता, बाइबिल, कुरान  या गुरुग्रंथ 
बड़े से बड़ा बम बनाने के फार्मूले के पन्ने (सोच )
एक न एक दिन 
पुराने पड़ जाएंगे 
कूड़े के ढेर में 
पड़े पाए जाएंगे 
और तो और 
मैं ,तुम 
और वे जो आने वाले हैं 
वो भी एक न एक दिन  
मिट्टी में अवश्य मिल जाएंगे... 
वक़्त ही रहा है 
अपनी खामोश 
आवाज के साथ 
और सदा रहेगा। 
       -----           सुरेन्द्र  भसीन 

Monday, October 23, 2017

कामना

 हे,
अग्निदेव! जलदेव!
मेरे मरणोपरांत, 
मेरी हड्डी-हड्डी जला-लो, 
गला-लो पूर्णतया
चूर-चूर करके 
उसकी राख बना लो 
पुनः इस वातावरण 
में मिला लो !
     ---------             सुरेन्द्र  भसीन    

कुतर्क

तुम्हारे
ये खुदगर्ज वासनामयी तर्क
किसी काम नहीं आयेंगे
जब अंतिम समय यमदूत तुम्हें लेने आयेंगे।
तुम्हारा हिसाब-किताब, धन-दौलत
पुण्य कर्म के तुम्हारे
बटोरे हुए दिखावटी कागजी तमगों
सरकारी वाहवाहियों, प्रशस्तीपत्रों का भार भी
यहीं छूट जायेगा -नीचे
न कोई इन्हें सुनेगा, न ही
इनका तिनका भर ऊपर जा पायेगा तुम्हारे साथ।

क्योंकि वहाँ के
पाप-पुण्य की भाषा, परिभाषा
कर्म के सदमार्ग की ओर से
पूर्णतया अनभिज्ञ ही रहे जीवन भर
सत्य को भी तुमने कभी न जाना, न  पहचाना ।
अब अपने अंतिम समय
जब तुम्हें हाथ पर रखे दिए की लौ में
एक लौ हो जाना है तो,
होंगे कैसे ?
किस विश्वास के  सत्य के साथ
कह पाओगे उसे
कि मुझे अपने में समा लो !
          ---------           सुरेन्द्र भसीन
















क्रोध बम

क्रोध के भी 
अनेक घातक बम बन जाते हैं 
विरोध भरे, विद्रोह सने 
हर जीव के भीतर ही भीतर
तैयार धज्जियाँ उड़ाने को संबंधों की,
अस्तित्व तोड़ते इंसानी पहाड़ी इरादों का,
उजाड़ बनाते लोगों की भावनाओं के शहर के शहर,
वैमनस्य का प्रदूषण फैलाते हर और 
किसी को न नजर आते, न समझ आते 
जब धोखे से फटते तो 
सब तहस-नहस और तबाह कर जाते 
भीतर-बाहर 
अपने में ,अपनों में 
गहरे घाव कर जाते। 
         -------           सुरेन्द्र भसीन  

Sunday, October 22, 2017

सफ़ा पन्ने

कोई भी
इच्छा, चाह या  पुस्तक 
पूरी  नहीं होती  मेरी
सारे पन्ने सफ़ा हैं
और मैं किसी भी
लकीर से पहले
हो चुका हूँ
खत्म।
          ---------                सुरेन्द्र भसीन 

मैं एक पत्थर हूँ

मैं
एक पत्थर हूँ
बहुत बड़ा-सा
बहुतों के रास्ते में -   अड़ा-सा
जब तक
कोई ठोकर मारे
उससे पहले
मैं खुद ही हट जाता हूँ 
और गल्ती से
इंसान-सा व्यवहार
कर जाता हूँ।
 ---------        सुरेन्द्र  भसीन

संकोच में नहाना

मैं
संकोच में नहाता हूँ
या संकोच के कारण नहाता हूँ
मगर ऊंची आवाज़ में
गाना जरूर गाता हूँ
पता नहीं बिना गाये
मैं नहा क्यों नहीं पाता हूँ या
नहाने से कतराता हूँ ?
हर बार आँखे भी मुंद जाती हैं मेरी।
क्या मैं
ईश्वर के सामने जाते शर्माता हूँ -
जैसे मेहमान के पास  जाने से
शर्माता कोई बच्चा ?
याकि हर नवीन से
मैं भय खाता हूँ।
           ----------             सुरेन्द्र भसीन  

कविता किरचें

कविताओं  के  नहीं
बिखराव  के  संकलन होते हैं
यह कविता संग्रह
छोटे-छोटे रंगीन कांच की
किरचें बटोरना
भावनाओं को बिना सार्थक वजह बीनना
महज जगह साफ़ करने के उद्देश्य से समेटना
कि अब किरचें
लहुलुहान नहीं करेंगी किसी को,
कि आश्वस्त करना सभी को,
कि हादसे
तरतीब से
निपट /गुजर गए हैं।
     ---------             सुरेन्द्र  भसीन 

गजल के टुकड़े

बेखबर  होने से  खबरदार  होना  अच्छा  है
हादसों का यह छपा अखबार बड़ा अच्छा है।
नजर  जहां तक जाती  है तिजारत ही तिजारत है
हमारे संग आपका यह व्यवहार बड़ा अच्छा है।
अखबार की सुर्खियां अब चाय से न निगली जायेंगी
इसके  लिए समझदार  होना न बड़ा अच्छा है।
मंदिर-मस्जिद की सीढ़ियां रास आ जाएं हमको
इसके लिए गुनहगार होना बड़ा अच्छा है।
दुनियादारी  का  चालो -चलन  समझने  के लिए
होशियार  होना  बड़ा  अच्छा  है।
                 -----------                        सुरेन्द्र  भसीन          

आज का रावण

इस देश के
(आत्मा)राम को
न जाने क्या हुआ कि
इसे आज का रावण
दिखता क्यों नहीं है ?
तीन सौ पैंसठ दिन
अपने दसों सिरों से हमारा उपहास करता
वे दसों दिशाओं में
बढ़ता ही जाता है
और हमारा राम है कि 
दशहरे के एक दिन का इंतजार
करता ही रह जाता है
और बहुत जल्दी ही ऊपरी/फौरी तौर
पर उसे मारकर
उसे जलाकर
अपने कर्तव्य की इतश्री कर,
मिठाई-खा, सो जाता है। 
अच्छा हो सब
अपने भीतर
(आत्मा)राम को जगाओ
उसे दिनोदिन बढ़ता
रावण दिखाओ,
उसे मारकर,
रोज दशहरा मनाओ।
        ------     सुरेन्द्र भसीन

Saturday, October 21, 2017

बेफजूल ग़ज़ल

ग़ज़ल कहकर
परेशानियाँ क्यों बढ़ाते हो
स्पष्ट कहो न क्या चाहते हो ?
मेरे रुकने को कहने से
तुम रुक तो जाओगे नहीं,
अगर चले जाने को दूँ कह
तो चले जाओगे नहीं...
तुम्हें तो
न आना है न जाना है
हमसे  बस बात करने का
चाहिए एक बहाना है.....!
         ---------                     सुरेन्द्र भसीन  

विकृतियां

क्रोध को
पीने से
या अपने ही भीतर घोटने से
विकृतियां ही पैदा होती हैं
जो गुमनाम कैंसर या
रसौली बनकर फिर फूटती हैं
एक लंबे अंतराल के बाद जानलेवा होकर
अच्छा हो
उन्हें गलाते रहो और
बातचीत करके
उन्हें बहाते रहो।
       ----------            सुरेन्द्र भसीन

लंबा चुप

लंबा चुप रहना
भी झगड़ना ही होता है....
विरोध, बोलकर चाहे न कहना
लगातार चुप रहना
व्यथा  में, असहमति में....
कहने को सदा उद्त्त रहना
मगर स्थान न पाना/ न मिलना
क्रोध की पराकाष्ठा को झेलते रहना
चिंतन में घुलते रहना
लड़ते जाना,
करते जाना,
निरंतर संघर्ष अपने में
अपने ही भीतर
एक इंतजार भरा
अपनी ही सहमति में।
           ------------            सुरेन्द्र भसीन   

विश्वास

कहने  दो 
अपनी इन सिसकियों को 
तुम जो भी मुझसे कहना चाहती हो शब्दों में 
होता यही है हरबार कि 
वक़्त पर सही शब्द 
तुम्हें मिल नहीं पाते,
तुम्हारी निर्मल भावनाओं को 
मुझतक पहुंचा नहीं पाते 
बस सूखे पेड़ों की तरह 
ठूंठ  के  ठूंठ गूंगे-अपराधी बन 
खड़े हो जाते हैं और मुझे कुछ समझा  नहीं पाते हैं 
और जो सारा कहा 
तुम्हारे अहम से निकलकर
मेरे अभिमान के लौहद्वार से टकराता है 
बेबस-लाचार और व्यर्थ हो जाता है
 अब यह छुटी 
आंसुओं की निर्मलधार ही शायद 
हमारे बीच के वहम को धोएगी 
और हमारे बीच 
विश्वास का एक नया 
बीज बोएगी !
         -------      सुरेन्द्र भसीन 














Saturday, October 14, 2017

स्ंात तिरुवल्लुवर

स्ंात तिरुवल्लुवर
” उदवि वरैŸान्रु उदवि, उदवि
 सेयाप्पट्टार साल्विन वरैŸाु।“
यह तमिल कुरल संत तिरुवल्लुवर ने 125 से 150 ई0 वर्ष पूर्व रचा था तो तब से आज तक इसका उपयुक्त भावार्थ तक कोई नहीं कर सका है फिर भी गुजारे लायक भावार्थ सम्त्राट कम्बर ने लगभग् नवीं शताब्दी में अपनी रामायण में राजा बलि की दान की महिमा को लक्ष्मण को बताने के लिए कुछ इस प्रकार किया-
“ पूर्व उपकार को ध्यान में रखकर जो उपकार किया जाता है,
वह पूर्व उपकार को र्निधारित नहीं करेगा।
 परंतु वह
पूर्व उपकार करनेवाले की हैसियत को ही प्रकट करेगा।।“
देखा, अभी भी कुरल का भावार्थ डगमगा गया, पूरा नहीं उतरा। तमिल भाषी तो कुरल का मतलब समझते ही हैं मगर दूसरे भाषा भाषी पाठकों को विदित हो कि कुरल तमिल कविता में दो पंक्तियों एक दोहा छंद है, जिसका शब्दिक अर्थ भी है अति ‘संक्षिप्त‘। तिरुवल्लुवर के एक ग्रंथ “ तिरुक्कुरल “ में 1330 कुरल थे जिनसे 133 अध्याय बने थे। संत तिरुवल्लवर 125 से 150 ई0 वर्ष पूर्व मदुरै के राजा उग्रवेलवलुदियार के समकालीन थे। उनके पिता का नाम “भगवन“ तथा माता का नाम “आदि”था मगर उनका पालन-पोषण मलियापुर के एक किसान ने किया। उनकी पत्नि अति साध्वी एवं पतिव्रता थी। तिरुवल्लवर मैलापुर नगर(मयुरों का शहर) में निवास करते रहे जो कि वर्तमान के मद्रास नगर का ही एक भाग था और वहीं तिरुवल्लवर का एक मंदिर आज भी स्थापित है। अगर आज भी उधर कभी जायंे तो उधर नारियल के पŸो ढ़के छत वाले घर हैं यानि कल्पना में लें तो  इससे भी घना गहरा वातावरण तब भी वहाँ रहा होगा क्योंकि यह सारा ईलाका समुद्र के बेहद करीब है। तिरुवल्लुवर बचपन से मिलनसार, सहृदय व हंसमुख प्रकृति के व्यक्ति थे। उनमें यात्रियों के प्रति, आगुन्तकों के प्रति, मित्रों के प्रति मैत्री भाव भी अपार था।        
साधू-संतों का आतिथ्य भी वह अपनी  शारीरिक क्षमता से भी बाहर जाकर कर आत्मा तक से कर दिया करते थे। इसलिए अतिथि के बिछुड़ने का योग उनके लिए अत्यन्त असहनीय था। मित्र विछोह से क्लांत होकर उन्होंने एक अनूठी कामना भरा कुरल लिखा, जिसके भावार्थ कुछ इस प्रकार से हैं-
”मूर्खों की मित्रता अत्यन्त सुखदायक है
क्योंकि उनके विछोह में वेदना कदापि नहीं होती।“
तिरुवल्लुवर ही एक ऐसे संत हुए हैं जिनका मंदिर भी स्थापित हुआ मगर उन्होंने कभी भी अपने जीवन भर में धर्म, ईश्वर, परमात्मा, सगुण-निर्गुण उपासना या पूजा, साधना या पूजा पद्धति के बारे में, पक्ष में या कि विरोध में अपने कुरल में कभी कुछ नहीं कहा, न ही कोई शिक्षा या प्रवचन दिया। है न आश्चर्य, कमाल का अनूठा संत। इनका सारा काम, सारा जीवन, सारा ज्ञान, सारा काव्य याकि समाज को इनकी देन सब प्रेम, आपसी स्नेह, भाई-चारे निबाहे जाने वाले संबंधों, हंसी-मजाक, व्यक्ति के आचरण आदि को लेकर ही थे। वैसे तो उनकी शिक्षाओं के बारे में सूत्र रुप में कुछ कहना अत्यन्त कठिन है मगर फिर भी हम कह सकते हैं कि वह बिना परमात्मा को बीच में लाए हुए व्यक्ति और समाज को एक दूसरे के प्रति व्यवहार व जीना सिखाते थे। तिरुवल्लुवरजी ने जीवन के उन भावों को महŸव दिया, उन पर अपने विचार व कुरल लिखे जो व्यक्ति के लिए निजीरुप में तो महŸवपूर्ण हैं मगर सामाजिक जीवन में इनको न कोई अत्यन्त महŸवपूर्ण ही मानता है, न इनपर लिखता व चर्चा करता है मगर इसी से ही समाज की महŸवपूर्ण ईकाई स्वस्थ व्यक्ति का निर्माण होता है। अच्छे चारित्रिक गुणों की शिक्षा देने वाले कुरल लिखने वाले तिरुवल्लुवर में भी ऐसे अनेक गुण थे जिनकी छाप उनके बारे में प्रचलित अनेक शिक्षाप्रद कहानियों में तो मिलती ही है इसके अतिरिक्त उनके मन के भावों को प्रतिपादित करने वाले अनेक कुरल भी हैं। यहाँ हम उनके भावार्थ ही दे रहे हैं-
“मीठे वचन जो बोलते में समर्थ हैं
वे अप्रिय कठोर वचन क्यों बोलें ?
यह काम ऐसा है जैसे कि
मीठे फल मिलने की ऋतु में
कच्चे फल खाने को ंिमलें।”                      
दूसरों के साथ जो मिल जुल कर नहीं रह सकते उनके लिए-
“यह बड़ा विश्व, दिन में भी
रात के सदृश अंधकार दिखेगा।”
परोपकार व दया के सन्दर्भ में उन्होंने लिखा-
“र्निदयी धनवान अपनी संपŸिा को
छिपाकर रखते हैं
शायद वे दान के आनंद को नहीं जानते।”           तथा
“वैभवरहित व्यक्ति एक न एक दिन
बन सकता है वैभवशाली।
लेकिन जिनके हृदय में दया नहीं
उनका उद्धार हो सकता कभी नहीं।”
कुसंगति से बचने के महŸव या आवश्यकता पर-
”पानी मिट्टी के गुण को प्रकट करता है
जमीन पर बहता है और फिर उसी के समान हो जाता है।
उसी प्रकार मनुष्य की बुद्धि भी संगति के अनुरुप बदल जाती है।“    तथा
” मनुष्य की बुद्धि उसके मस्तिष्क के अनुसार होती है,
 परंतु चरित्र का निर्माण संगति से ही होता है।“
तिरुवललुवर अत्यन्त भावुक ईंसान थे मित्रता के निर्वाह में भी वह पीछे नहीे हटते थे। क्षमा करना, उपकार करना व भूल जाना उनके गुणों में था। भाषा व विचार संप्रेषण पर उनकी पकड़ ऐसी थी कि अपने अनुभवों को सटीकता से शब्दों मे भर देते थे। एक ही पंक्ति  भर में अनुभवों का अथाह भंड़ार व्यक्त क रवह मानों गागर में सागर भर देने में कामयाब हो जाते थे। उनका एक कुरल इस प्रकार का भावार्थ लिए है-
”अन्न, वस्त्र आदि सब के लिए बराबर हैं।
संकोची होना ही सज्जन को शोभा देता है।।“
तिरुवल्लुवर अपशब्दों का प्रयोग बुरा मानते थे वह कहते थे शब्दों की गरिमा व सम्मान करते हुए सदा सार्थक शब्दों का प्रयोग ही होना चाहिए ऐसा भावार्थ लिए हुए उनका कुरल है-” सुननेवालों की क्षमता को ध्यान में रख
शब्दों का प्रयोग करो। अन्यथा
धर्म अर्थ का कोई मूल्य नहीं।“                       तथा
” जो बौद्धिक स्तर पर तुम्हारे बराबर नहीं हैं
उनके समक्ष वार्तालाप करना
गंदे आंगन में अमृत बहाने के बराबर है।“
प्रेम, स्त्री-पुरुष प्रेम के सभी रंगों की वर्षा की गई है। दैहिक-प्रेम, भावनात्मक-प्रेम, अलौकिक प्रेम यानि सभी पर बड़े सुंदर कुरल रचे गये हैं। स्त्री-पुरुष प्रेम में वह दोनों को बराबर आवश्यकता वाला समझकर व्यवहार करते हैं। प्रेम महज अंत में परिणाम के स्तर पर ही सुंदर एवं सुखदायक नहीं होता उसकी यात्रा भी आनंद से, अनुभव से भरी होती है-
 “सुमन से मृदुतर है काम,
कुछ ही लोगों को प्राप्त है
उसका शुभ परिणाम।।“
काम के बारे में, पे्रम के बारे में, अपने प्रिय के बारे में जितना अधिक जानें व कहें उतना ही कम जानकारी लेने व देने का अहसास होता है। तथा एक प्रेमी जोड़ा चाहे किसी योनि का हो,जाति का हो, प्रेम की उन्मादावस्था में मिलन की, आलिगंन की अवस्था में रहना चाहते हैं, अलौकिक याकि चरमोत्कर्ष स्तर का इन्द्रिय सुख पाते हैं-
“देखना, स्पर्श करना, सूंघना, सुनना, अनुभव करना,
पंचेन्द्रियों का सुख
नायिका से पूर्णरुप से मिल जाता है।“
विरह, वियोग भी प्रेम का एक आवश्यक पड़ाव या तत्व है जिस मोड़ के बिना प्रेम वीथियों में धूमा ही नहीं जा सकता। तिरुवल्लुवर जी ने उस पर भी अपनी कलम चलाई है और अनेक कुरल लिखे हैं-
“अगर वह मुझसे बिछुड़कर नहीं जाते
ते यह समाचार मुझको बताओ।
प्रियतम के वापस आने के आश्वासन पर
जो जीते रहते हैं, उनसे कहो।।“               तथा
“आग तो छूने पर ही जला सकती है
किन्तु काम ज्वर तो बिछुड़ने पर जलाता है।।“           तथा
“यदि आँख ना ही खुले तो अच्छा है।
मेरे प्रियतम, जो स्वप्न में आते हैं मुझसे कभी नहीं बिछुड़ेगें।”
तिरुवल्लुवर जी ने परिहास, दुख, रुदन व जीवन के सभी पक्षों पर कुरल लिखे, सभी को यहाँ सम्मिलित करना तो संभव नहीं है मगर बानगी के तौर पर निम्न का स्वादन या रस हम ले सकते हैं-
ईश्यालु व्यक्ति की समृद्धि
और धर्मनिष्ठ व्यक्ति की निर्धनता
दोनो ही विचारणीय विषय हैं।     तथा
सज्जनों की सभा में मूर्ख का प्रवेश करना इस प्रकार है
जैसे साफ-सुथरी शय्या पर बिना धोये पैर रखना।            तथा
जैसे किसान खेत को निराता है
वैसे राजा दुष्टों को मृत्यु दंड देता है।      तथा
पानी में तैरने वाला फूल,
पानी की ऊँचाई जितना ही ऊपर ऊँचा होगा
उसी प्रकार मनुष्य की महानता
मन जितना ऊँचा होगा उतनी ऊँ़ची होगी।
और न जाने अनुभव के पगे कितने कुरल हैं जो समाज को सही व्यवहार, सही राह दिखा रहे हैं। तिरुवल्लुवर, ज्ञान के दृश्य माध्यम से श्रवण माध्यम को अधिक महŸव देते थे यानि पढ़ने की अपेक्षा सुन अधिक लोग पाते हैं यानि श्रवण माध्यम से या बोलकर अधिक ज्ञान प्रसारित किया जा सकता है। ऐसा उनका एक कुरल भी है-
श्रवणों द्वारा अर्जित संपŸिा ही श्र्रेष्ठ निधि है
वह अन्य सभी संपŸिायों में से श्र्रेष्ठ है।
तभी उन्होंने कुरल लिखकर ही अपनी संपŸिा को सभी में बांटते हुए बढ़ाया। तिरुवल्लवर के कुरल, शिक्षा हैं, उपदेश हैं, समाज को, प्रयास हैं व्यक्ति व समाज को सरल व उत्थानमेय बनाने की जहाँ सभी प्रेम से प्रगति करें। अभी तक के भारतीय साहित्य में ऐसा कोई ग्रंथ नहीं है जो तिरुक्कुरल ग्रंथ की समानता कर पाया हो। कहीं यह भी माना गया है कि ग्रीक कोरसों में जिज्ञासुओं को शांति प्रदान करने की सामथ्र्य नहीं है किंतु तमिल साहित्य के उक्त तिरुक्कुरल में वह शक्ति निहित है।
फूल मालायें, सम्मतियाँ, प्रशंसायें सब कुछ अद्भुत व अथाह बटोरा है इस ग्रंथकार, कवि, संत तिरुवल्लुवर ने। हम भी इनके बारे में क्या कुछ कहें व क्या कुछ छोड़ें वास्तव में तो सात्विक रंग का, सुंगध का महक भरा संदूक है जो भीतर जाकर हृदय में उल्ट जाता है।
क्वि अव्वैयार ने ठीक ही लिखा है कि-
”आध्यात्मिक सत्य का दीपक
सतत् तेजोमय प्रदीप्त़़‐‐‐‐‐‐‐
जिस तरह वह आज तक जलता रहा है
आज भी विदीर्ण करे
समस्त मानवों के हृदय का अंधकार।।”
      और यही कामना हमारी भी है।

दस्तूर /चलन

दस्तूर /चलन

अब
हम नहीं बोलते बुरा किसी को
हम नहीं कहते गलत किसी को
जो गलत होगा, बुरा होगा
खुद ही टकरायेगा
अपने जैसे किसी को,
खुद ठोकरें खाकर
सुधर गया तो ठीक
वरना टूट कर चूर-चूर हो जायेगा
अब यह दस्तूर नहीं
न ही दुनिया का चलन कि
कोई रोके किसी को, टोके किसी को
कोई नहीं दोस्त हमारा
न हम रिश्तेदार किसी के
सही हो या गलत
हम तो सबके साथ....
सिर्फ मुस्कुरायेंगे
गलत  हो या सही
गर्दन हाँ में ही
हिलायेंगे। 
               -----------              सुरेन्द्र भसीन



भ्र्ष्टाचार का श्राप

जो जानता है 
और जिसने 
भ्र्ष्टाचार छुपाया है 
वह मरेगा बीच चौराहे 
सिपाहियों की गोली खाकर.... 
फिर भी न सोचो 
कि कभी कोई सच 
छिप पायेगा....  
सच तो सूर्य है 
अंधेरे की कितनी भी हो घनी चादर 
फाड़कर सामने एक दिन जरूर आयेगा 
फ़ाइलें फाड़ देने या 
जला देने से 
तुम्हारा कोढ़ छुप नहीं पायेगा 
गंगा मईय्या  की सौगंध -
यह श्राप है तुमको 
जिनके लिए तुमने ये पाप किया है न !
उन्हीं की घृणा के नीचे 
तुम्हारा वजूद 
एक दिन सिसकेगा 
और कराहेगा !
           ------             सुरेन्द्र  भसीन   

स्ंात तुकाराम जी

स्ंात तुकाराम जी
संत कवि तुकाराम जी का जन्म महाराष्ट्र प्रान्त के पूना नगर में ’देहू’ ग्राम में हुआ। यह सन् 1598 की बात है, वे एक भले एवं खुशहाल किसान परिवार में जन्मे। उनके परिवार के पास 15 बीघे जमीन  तथा एक दुकान थी जिसमें अनाज, चावल, दालें, मसाले आदि बेचे जाते थे। कुछ धन सूद पर भी था यानि सब प्रकार का धन-धान्य उपलब्ध था। तुकारामजी के पिताजी का नाम बोल्होबा तथा माताजी का नाम कनकाई था। तुकाराम जी के खेतों में विट्ठल का एक  पुरातन मंदिर था और कई पीढि़याँ विट्ठल या पांडुरंग की पूजा करती आ रही थीं। तुकाराम जी के पूर्वज गोसावी संप्रदाय से थे इस प्रकार उनका कुल वारकरी संप्रदाय से भी जुड़ा हुआ था, नामदेव, ज्ञानेश्वर एवं एकनाथ जी से संबंधित होने के कारण भक्ति-भावना उन्हें पारिवारिक विरासत में मिली हुई थी। 17 वर्ष तक की आयु तक सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा मगर अगले 7 वर्षों में भाग्य ने सब कुछ उलट-पलट कर दिया, सब कुछ तिनका-तिनका होकर बिखर गया, पहले पिताजी की मृत्यु, फिर बड़े भाई का सन्यास लेना, अकाल का पड़ना,पत्नि और बेटे का भूख से मरना, दूसरा विवाह मगर कर्कषा पत्नि, उसके बाद हैजे की महामारी, खेती खत्म,सूद का पैसा बर्बाद यानि सब खो गया शान्ति, घर, परिवार, व्यापार, मान-सम्मान सभी कुछ। उन्होंने उन र्दुदिनों व उस समय की अपनी मनोदशा को अपने काव्य में यूँ व्यक्त किया है:-
स्ंावसारे जालों अतिदुःखे दुखी । मायबाप सेखीं क्रमिलिया ।।
दुष्कालें आटिलें नेला मान ।  स्त्री एकी अन्न अन्न करितां मेली ।।  
लज्जा वाटे जीवा त्रासलों या दुःखे । वेवसाय देखों तुटी येतां ।।  तथा
तुका म्हाणे कांही न धरावी आस । जावें हें सर्वस्व टाकोनियां ।।
यानि कोई कामना न रही, किसी चीज की इच्छा न रही, निराशा एवं घृणा के मारे वे सब कुछ छोड़ कर चले जाना चाहते थे। धीरे-धीरे वे एकांतवासी हो गये। खामोश, गुम, अपने में खोये रहना। अन्तर्मुखी, ध्यान में, तपस्या में लीन रहने लगे। देहू स्थान के समीप भामनाथ एवं भण्डारा की पहाडि़याँ लगती थीं, उन्हीं में दिन बिताने लगे। धर्म ग्रंथों के मनन में अब अधिक शांति व सकून मिलता। 1619 में तुकारामजी ने बाबा राघव चैतन्य को अपना गुरु बनाया और उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली। उसी समय उन्होंने अपनी सारी संपत्ति छोटे भाई के नाम कर दी और संसारिक कार्यों से विमुख होकर अपने को परमात्मा के कार्यों में लगा दिया। निस्वार्थ भाव से किये गये प्रयासों से उनकी प्रसिद्धि फैलने लगी। उनके उपदेशों से लोग प्रभावित और लाभान्वित होने लगे। गुरु बाबा राघव चैतन्य की शिक्षाओं तथा तनमय होकर अभ्यास करने से तुकाराम जी इतने सरल एवं निर्मल हो गये कि उनका क्रोध, अंहकार, द्वेष सब गल गया। उनके एक शिष्य की पत्नि ने क्रोध में आकर उनपर गर्म पानी उडेल दिया, मगर उन्हें किंचित क्रोध न आया। उन्होंने लिखा भी है कि -
रुसलो आम्हीं आपुलिया संवसारा । तेथें जनाचारा काय पाड ।।
आम्हां इम्ट मित्र सज्जन सोयरे  । नाहीं या दुसरें देवाविण  ।।
अर्थात्, मैं संसार से रुठ गया हूँ , नाराज हूँँ तो फिर भला मुझे क्या मतलब कि लोग मेरे साथ कैसा व्यवहार करते हैं। परमात्मा, ईश्वर ही अब मेरा मित्र, सखा और हितैषी है। तुकाराम का ईश्वर के प्रति आर्तनाद एवं विरह बढ़ता जा रहा था जैसाकि उन्होंने पद में लिखा भी है- शेवटींची विनती । ऐका ऐका कमलापती ।।
            काया वाचा मन ।  चरणीं असे समर्पण ।।
            जीवपरमात्मा, ऐक्यासि । सदा वसो हृदयेंसी ।।
            तुका म्हाणे देवा  ।  कंठी वसावे केशवा  ।।
अर्थ कि विनती यह करी है तुकारामजी ने इसमें कि मैं अपने आप को तन, मन, कर्म, और वचन से आपके चरणों में समर्पित कर रहा हूँ। मैं आशा करता हूँ कि तुमसे एकता अनुभव करता रहूँ। हे ईश्वर, मेरी वाणी में, कंठ में, उतर जाओ, बस जाओ, जिससे मैं तुम्हारी ही महिमा का गान करता रहूँ। आगे वे कहते हैं कि-
धरितों वासना परी नये फल ।  प्राप्तीया तो काल नाहीं आला ।।
त्लमली चित घातलें खापरीं  ।  फुटतसे परी लाहिचिया  ।।
तुकारामजी कहते हैं कि तुझसे मिलने की चाहत है मगर अभी तक मेरा प्रयत्न सफल नहीं हुआ है। शायद प्राप्ति में, तुझे पाने में अभी समय लगेगा। मेरा हृदय तेरे लिए विरह में ऐसे फटा जा रहा है जैसे तपते खप्पड़ में डालने पर धान फटता है। उनकी इच्छा तो ईश्वर दर्शन की थी और वह इतनी त्रीव थी कि जिसके आगे भूख-प्यास व देह का ध्या नही न रहता था- तुजविण मज कोण वो सोयरें । आणीक दुसरें पांडुरंगे ।।
               लगलीसे आस पाहा तुझें वास । रात्री वो दिवस लेखीं बोटीं ।।
               काम गोड मज न लगे हा धंदा । तुका म्हाणे सदा हेंचि ध्यान ।। तथा
न दे प्रभु मुझे कोई भी संतान
मयाजाल से मैं भूलूँ तुझे ।।
  न दे प्रभु मुझे, द्रव्य औ सुभाग ।
वही जो उद्वेग रह जाये ।। तथा आगे....
मुझसे बड़ा पापी नहीं होगा कोई, तथा आगे कहते हैं...
डर है अपार
छूटे न संसार....
अंह पर मेरे गिरने दो पाषाण
जलने दो भूषण नाम मेरा.....।   तथा
मन मेरा चंचल रहे ना निश्चल ।
घड़ी एक पल नही स्थिर ।।
और फिर एक दिन, एक पल ऐसा भी आया कि ईश्वर की, परमात्मा की, प्रभु की कृपा हो गई। अंदर प्रकाश की जगमगाहट बढ़ने लगी अपने अमिट प्रेम से तुकाराम जी की आत्मा ने अपने प्रियतम यानि ईश्वर को पा लिया, ईश्वर के चरणों में जगह बना ली, वास कर लिया। वे परमात्मा में लीन हो गये, समा गये, अब उन्हें परमात्मा हर दिशा, हर स्थान, हर प्राणी, हर वस्तु में दिखने लगा। द्वैत भाव समाप्त हो गया। तुकाराम जी यहाँ तक कहते हैं कि जब द्वैत भाव “ेमैं ” और ”तू” ही समाप्त हो गया, एकाकार हो गये तो इस अवस्था में कौन किसकी पूजा करता। यानि जीते जी का मरण हो गया, प्रभु मिलन का आनंद पा लिया। उन्होंने लिखा है कि मेरे रोम रोम में आनंद की लहर उठ रही है मेरी भावनाएँ ईश्वर में समा गई हैं जैसे उफान खाती नदियाँँ समुद्र में पहुँँचकर,गिर कर विलीन हो जाती हैं। तुकारामजी ने अभंग में लिखा है -
आपुलें मरण पाहिलें म्या डोलां । तो जाला सोहला अनुपम्य ।।
आनंदें दाटलीं तिन्ही त्रिभुवनें । सर्वात्मकपणें भोग जाला ।।
एकदेशीं होतों अंहकारें आथिला । त्याच्या त्यागें जाला सुकाल हा ।।
फिटलें सुतक जन्ममरणाचें । मी माइया संकोचें दूरी जालों ।।
नारायणे दिला वसतीस ठाव । ठेवूनियां भाव ठेलों पायीं ।।
यानि, अपना मरना खुद देखा। मेरे लिए समझना मुश्किल है ऐसी कोई और वस्तु नहीं जिससे उपमा दी जा सके। मेरे लिए तो विश्व में आनंद छा गया, मैंने पा लिया कि परमात्मा सब जगह है। जब तक मैं था मैं अंह से भरा था अब मेरा तन रीत गया, अंह भी तिरोहित हो गया, जब मैं ही न रहा तो कैसा मरना ? अपनी तपस्या के दौरान वैसे तो उन्होंने अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया मगर ”गीता“ की ओर अत्याधिक आकर्षित हो कर उन्होंने उसका अनुवाद संस्कृत से मराठी में किया जोकि तत्कालिक ब्राह्मण समाज को जरा भी न भाया परिणामतः उनका पुरजोर विरोध एवं बहिष्कार शुरु हो गया। न जाने क्यों तब के सनातनी ब्राह्मण गीता को पचा या स्वीकार नहीं कर पाते थे यानि गीता में ऐसा कुछ था जोकि ब्राह्मणों को चुभता था, उद्वेलित करता एवं धिक्कारता था। गीता का मराठी में अनुवाद व सरलीकरण फिर भला उन्हें क्योंकर स्वीकार होता अतः समाज के भारी विरोध के चलते उन्हें अपने कुछ अभगों एवं गीता  के अनुवाद को गुनाह  मानते हुए अपने ही हाथों चंद्रभागा नदी में डूबोना पड़ा, जिससे तुकारामजी का मन विद्रोह से भभक उठा और उन्होंने लिखा-
अच्छा किया प्रभु कुणबी बनाया ।
वर्ना मर गया होता दंभ से  ।।  तथा
विद्या कुछ होती । तो आपत्ति आ जाती ।।
गर्व से ऐंठता । तो यमपथ से जाता ।ं।
तेरह दिन तक उसी नदी के किनारे भूखे-प्यासे रहकर कठोर तप किया, ईश्वर को पुकारा, सिर्फ प्रार्थना और प्रार्थना, वे भी इस निर्णय के साथ कि-
तुका कहे मैंने रखा है निर्वाण ।
छोड़ दूँगा प्राण चंद्रभागा में ।।
तेरहवें दिन एक चमत्कार हुआ, आश्चर्य, एक महान आश्चर्य कि जो पोथी, डुबोई थी तुकाराम ने तेरह दिन पहले सबके सामने नदी में वह जल के ऊपर तैरने लगी। चमत्कार का प्रकाश चारों ओर फैल गया, खबर फैल गई। अब लोग उन्हें अवतार मानकर पूजने लगे, तब उन्होंने लिखा-
लोग कहते हैं मुझे देवता । मैं तो इसे अर्धम मानता ।।
अधिकार मेरा नहीं । करते हैं पूजा फिर भी ।।
मन जाने अपना पाप । कहे तुका माई-बाप ।।
शब्द व नाम की पूँजी के सहारे तुकारामजी ने प्रभु को पाया, उन्होंने लिखा भी है कि-
अणुरणीयां थोकड़ा । तुका आकाशएवदा ।।
तुका  म्हाणे आतां । उरलों उपकारापुरता ।।
यानि मैं तुका यों तो अणु से भी लघु हूँ, छोटा हूँँ, मगर साथ ही साथ आकाश जितना विशाल  भी हूँ। अब मैं केवल लोगों का भला करने के लिए जीवित हूँ, और उच्च कोटि का जीवन बिताकर, हजार, हजारों, लाखों को ईश्वर का मार्ग दिखाकर सन् 1650 में वे संसार से विलुप्त हो गये,विलुप्त यानि किसी को पता न लगा कि वे कहाँ गए, उनकी मृत्यु के बारे में कोई कुछ न जान सका, उनकी स्वाभाविक मृत्यु नहीं हुई। तुकाराम  जी की समकालीन संत बहिणाबाई ने लिखा है-
 तुकाराम तुम्हें देखते-देखते
 अकस्मात आया गुप्त रुप ।।
उनका देहवसान एक रहस्य ही रह गया मगर मृत्यु पूर्व के उनके अभंग कई मौजूद हैं-
प्रेत हुआ शरीर का भाव ।
श्मशान का ठौर लक्ष्य भया ।।  तथा
वैराग्य की उपले देह पर राखी......।
घट को घुमाया पैरों पास फोड़ दिया..... ।
तन था जिसका उसको समर्पित....  ।  इत्यादि....
मगर जो कुछ भी हुआ अनुपम हुआ, मीठा हुआ, सहज हुआ,गति से ऊपर सद्गति हुआ।

चाहतें /इच्छाएं

चाहतें /इच्छाएं
तारों-सी हमारे जीवन में
भरी होती हैं - टिमटिमाती....
दिखती हैं
बार-बार मगर
पकड़ में अक्सर नहीं आतीं....
कुछ होती हैं बच्चों के गैस भरे रंग-बिरंगे
गुब्बारे-सी आकर्षक
मगर जिद करके जकड़ो
तो फुस्स ही हो जातीं ....
पता नहीं वह हमें
सय्यम समझातीं या
हमारे जज्बात से खेल जातीं ....
चाहे जितना पीछे दौड़ो
पूरी कभी नहीं हो पाती....
          ----------               सुरेन्द्र भसीन  

हादसा

हादसा 

एक आईना होता है 
सबके भीतर लगा हुआ 
उससे सब बचना चाहते हैं 
उसके आगे 
काले होकर 
नहीं न जाना चाहते हैं 
कैसे भला ? 
कोई अपने ऐबों को देखें 
फिर निर्मोही होकर उन्हें काटे 
जैसे अपनी ही मुरझाई,
बेकार झूलती, काली-सूखी पड़ी टहनी को 
कोई पेड़ स्वयं ही काटे। 

बड़ा असंभव-सा है यह सब होना 
 मगर फिर एक दिन 
वक़्त ही निर्दयता से इसे 
कर जायेगा 
तब  हमारे जीवन में 
हादसा घटित 
हो जायेगा। 
         ------------             सुरेन्द्र भसीन 

Friday, October 13, 2017

एक

एक में
एक - एक होता है,
दो में दो - एक,एक
तो तीन में तीन-एक,एक,एक...
ऐसे ही असँख्य में अनेक एक,एक,एक..
मग़र होता है सब में
वो ही
एक...।
   ----  सुरेन्द्र भसीन

Friday, October 6, 2017

रावण का वध

कोई भी शायद
मेरे नये-ताजे-नन्हें
सच के साथ नहीं आना चाहेगा
क्योंकि तब वह
सदियों से
अपने विशाल ओढे हुए
झूठ के फूटने-फटने का सदमा लेकर
वह कहाँ जायेगा ? कि
रावण को राम ने नहीं मारा-
रावण को तो सीता के तिरस्कार ने मारा।
और रावण को किसी ने नहीं जलाया -
वह तो उस दिन से
भीतर  से जलने लगा
जिस दिन सीता ने
उसके पुरूषत्व की अवहेलना कर
राम को स्वीकारा......
सोचा है कभी
जब हमारा पुरूषत्व /अहम
दांव पर चढ़ा होता है
तब हमारे भीतर
क्रूर अटटहास करता, जलता हुआ
एक रावण क्या नहीं खड़ा होता है ?
जो हमारे बीच
वासना बन बसता है और
हर बार
बाहरी रावण को जलाने के
हमारे इस आडंबर पर
विभित्स हंसी हँसता है।
           ----------                  सुरेन्द्र भसीन          





















Tuesday, October 3, 2017

आस्था का चमत्कार

किसान
व्यापारी या शहरी बाबू से
ज्यादा आस्थावान होता है
जो प्रकृति से पाये बीजों को
एक-एक करके अपने हाथों
धरती में गोड़ता(दबाता) है
उनके सौगुना हो जाने 
फिर से उपज आने को
आस्था का चमत्कार
फिर से हो जाने को।
       -----  सुरेन्द्र भसीन

Sunday, October 1, 2017

बैरंग

अभी
हम कहाँ हैं?
जानने के लिए ही
अपने से वर्षों, सैकड़ों कौस
भटकते-भटकाते
झूठे-सच्चे सम्बन्धों के तानो-बानो से
उलझते-निकलते
उखड़ी जीवन राहों से गुज़रकर
बैरंग
लौट तो आए हैं हम
अपने ही भीतर।
मग़र पूरा जीवन
अपने से क्या चाहते थे
फिर भी....जरा भी
समझ नहीं पाए
हैं हम?
  ----   सुरेन्द्र भसीन    

Friday, September 22, 2017

लफ्जों की न कोई आवाज़ करो.... (गीत)

यूँ  ही रह जाने दो इन चुप्पियों को 
चाहत की न कोई आवाज़ करो 
न कुछ पूछो हमसे  
न कोई अपनी बात करो 
बह जाने दो इनको हमपर से 
लफ्जों की न कोई आवाज़ करो....   

ये बेलगाम बातें  
पहुँचाती नहीं कभी ठिकाने तक 
फिर हम  क्यों इनके आघात सहे 
शोर ही भरता  जाना है कानों में तो 
 क्यों कोई आवाज़ करे.... 
यूँ ही रह जाने दो इन चुप्पियों को 
लफ्जों की न कोई आवाज़ करें ?
        -----------           सुरेन्द्र भसीन 

Monday, September 18, 2017

बार बार..लगातार...

बार बार..लगातार...  

मैं 
तारकोल हूँ ?
रोड़ी-बजरी हूँ या 
कुछ और.... ?
यह मुझे तो नहीं मालूम मगर 
हर बार मैं ही राह बना दिया जाता हूँ.... 
झूठे वायदों,तरक्की व योजनाओं के 
भारी-भरकम ट्रकों की राहों की  
सड़क बना बिछा दिया जाता हूँ। 

मुझसे होकर ही 
वे गुजरते तो हैं 
मगर पता नहीं वे कहाँ जाते हैं ?
कम से कम मेरे काम तो 
वे नहीं आते हैं। 

जब-जब मैं 
टूट-फूट जाता हूँ,
उखड़ने लगता हूँ तब  
कुछ और मेरे जैसे आ जाते हैं,
मिला दिए जाते हैं-
रोड़ी बनाकर,बजरी बनाकर, तारकोल मिलाकर 
तरक्की, वायदों या योजनाओं की राहों में... 

सोचता हूँ मैं 
कि मेरे लिए यह समूचा वक़्त ही काला है 
या मैं काला ही जन्मा हूँ ?
जो खुद न कहीं आता हूँ 
न कहीं जाता हूँ 
मगर दूसरों के लिए सदा 
सड़क बना, 
उनकी सुविधा बना, 
तलुवों में बिछा दिया जाता हूँ 
बार बार... लगातार..... । 
             --------       सुरेन्द्र भसीन   














Saturday, September 9, 2017

बड़े की परिभाषा

आजकल किसी का
कुछ भी कहा 
किसी को भी
अच्छा  नहीं लगता
कोई कुछ सुनना नहीं चाहता।
सब चिड़चिड़ाए हैं और 
क्रोध में भरे हैं
अपने से खीझे
अपने से ही लड़े हैं। 
फिर कहते हैं हम
बड़े हैं .....
         ----------    -सुरेन्द्र भसीन

Monday, September 4, 2017

बचपने की बात

बच्चों को खेलते देखो तो
उनमें बड़े नज़र आते हैं
बचपन में भी बड़ों की तरह
प्रतियोगिता करते
छीनते-झपटते....

अगर बड़ों को व्यवहार करते देखो तो
उनमें बच्चे उभर आते हैं
टूटती चीजों पर बिसूरते और
बड़े होकर भी
बात-बात पर रूठते, नाराज होते
मनुव्वल  की इंतजार करते।

सारी उम्रह शिक्षा के बाद भी
हम बड़े नहीं हो पाते/होना चाहते
 हम बच्चे थे
हम बच्चें हैं
और हम बचपना छोड़ना नहीं चाहते।
                       -------------                       सुरेन्द्र भसीन  

Thursday, August 10, 2017

संत तुकारामजी

                                    Lakr rqdkjke th
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