एक
मछली की
तडप-फड़फड़ाहट पर भी
सब चुप हैं।
कोई उसे क्यों नहीं बताता-समझाता
कि पूरा मुँह खोलने पर ही
मछली के मुँह में कभी समुद्र
नहीं समाता।
कि पानी में रहने भर से
पानी अंदर नहीं चला जाता।
उसे खींचना पड़ता है -
साँस दर साँस
जैसे कोई नवजात
धीरे-धीरे थनों से दूध चूसता-चुघलता हो ऐसे।
ज्ञान भी
किताबें खोलने भर से, बांचने भर से ही नहीं आता
अंजुरी-अंजुरी लीलकर
मथना पड़ता है
देवता स्वरूप मनाना पड़ता है
आग्रह से बैठना पड़ता है।
------------- सुरेन्द्र भसीन
मछली की
तडप-फड़फड़ाहट पर भी
सब चुप हैं।
कोई उसे क्यों नहीं बताता-समझाता
कि पूरा मुँह खोलने पर ही
मछली के मुँह में कभी समुद्र
नहीं समाता।
कि पानी में रहने भर से
पानी अंदर नहीं चला जाता।
उसे खींचना पड़ता है -
साँस दर साँस
जैसे कोई नवजात
धीरे-धीरे थनों से दूध चूसता-चुघलता हो ऐसे।
ज्ञान भी
किताबें खोलने भर से, बांचने भर से ही नहीं आता
अंजुरी-अंजुरी लीलकर
मथना पड़ता है
देवता स्वरूप मनाना पड़ता है
आग्रह से बैठना पड़ता है।
------------- सुरेन्द्र भसीन
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