Sunday, October 29, 2017

समेटते-सिमटते

कितना 
कितना चाहता हूँ मैं 
कि लोगों में बसा रहूँ 
और लोग मुझमें। 
मगर ऐसा चाहकर भी 
हो नहीं पाता है -
मैं बार-बार लोगों से बाहर निकल जाता हूँ अकेला। 
और लोग भी मुझ से बाहर हो जाते हैं 
मुझे छोड़कर वीरान-सुनसान।
फ़ैल जाता है एक 
शून्य का रेगिस्तान 
भीतर से बाहर तक 
अपने को 
समेटते-सिमटते।
       ---------    सुरेन्द्र भसीन        

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