कितना
कितना चाहता हूँ मैं
कि लोगों में बसा रहूँ
और लोग मुझमें।
मगर ऐसा चाहकर भी
हो नहीं पाता है -
मैं बार-बार लोगों से बाहर निकल जाता हूँ अकेला।
और लोग भी मुझ से बाहर हो जाते हैं
मुझे छोड़कर वीरान-सुनसान।
फ़ैल जाता है एक
शून्य का रेगिस्तान
भीतर से बाहर तक
अपने को
समेटते-सिमटते।
--------- सुरेन्द्र भसीन
कितना चाहता हूँ मैं
कि लोगों में बसा रहूँ
और लोग मुझमें।
मगर ऐसा चाहकर भी
हो नहीं पाता है -
मैं बार-बार लोगों से बाहर निकल जाता हूँ अकेला।
और लोग भी मुझ से बाहर हो जाते हैं
मुझे छोड़कर वीरान-सुनसान।
फ़ैल जाता है एक
शून्य का रेगिस्तान
भीतर से बाहर तक
अपने को
समेटते-सिमटते।
--------- सुरेन्द्र भसीन
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