Saturday, October 14, 2017

स्ंात तुकाराम जी

स्ंात तुकाराम जी
संत कवि तुकाराम जी का जन्म महाराष्ट्र प्रान्त के पूना नगर में ’देहू’ ग्राम में हुआ। यह सन् 1598 की बात है, वे एक भले एवं खुशहाल किसान परिवार में जन्मे। उनके परिवार के पास 15 बीघे जमीन  तथा एक दुकान थी जिसमें अनाज, चावल, दालें, मसाले आदि बेचे जाते थे। कुछ धन सूद पर भी था यानि सब प्रकार का धन-धान्य उपलब्ध था। तुकारामजी के पिताजी का नाम बोल्होबा तथा माताजी का नाम कनकाई था। तुकाराम जी के खेतों में विट्ठल का एक  पुरातन मंदिर था और कई पीढि़याँ विट्ठल या पांडुरंग की पूजा करती आ रही थीं। तुकाराम जी के पूर्वज गोसावी संप्रदाय से थे इस प्रकार उनका कुल वारकरी संप्रदाय से भी जुड़ा हुआ था, नामदेव, ज्ञानेश्वर एवं एकनाथ जी से संबंधित होने के कारण भक्ति-भावना उन्हें पारिवारिक विरासत में मिली हुई थी। 17 वर्ष तक की आयु तक सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा मगर अगले 7 वर्षों में भाग्य ने सब कुछ उलट-पलट कर दिया, सब कुछ तिनका-तिनका होकर बिखर गया, पहले पिताजी की मृत्यु, फिर बड़े भाई का सन्यास लेना, अकाल का पड़ना,पत्नि और बेटे का भूख से मरना, दूसरा विवाह मगर कर्कषा पत्नि, उसके बाद हैजे की महामारी, खेती खत्म,सूद का पैसा बर्बाद यानि सब खो गया शान्ति, घर, परिवार, व्यापार, मान-सम्मान सभी कुछ। उन्होंने उन र्दुदिनों व उस समय की अपनी मनोदशा को अपने काव्य में यूँ व्यक्त किया है:-
स्ंावसारे जालों अतिदुःखे दुखी । मायबाप सेखीं क्रमिलिया ।।
दुष्कालें आटिलें नेला मान ।  स्त्री एकी अन्न अन्न करितां मेली ।।  
लज्जा वाटे जीवा त्रासलों या दुःखे । वेवसाय देखों तुटी येतां ।।  तथा
तुका म्हाणे कांही न धरावी आस । जावें हें सर्वस्व टाकोनियां ।।
यानि कोई कामना न रही, किसी चीज की इच्छा न रही, निराशा एवं घृणा के मारे वे सब कुछ छोड़ कर चले जाना चाहते थे। धीरे-धीरे वे एकांतवासी हो गये। खामोश, गुम, अपने में खोये रहना। अन्तर्मुखी, ध्यान में, तपस्या में लीन रहने लगे। देहू स्थान के समीप भामनाथ एवं भण्डारा की पहाडि़याँ लगती थीं, उन्हीं में दिन बिताने लगे। धर्म ग्रंथों के मनन में अब अधिक शांति व सकून मिलता। 1619 में तुकारामजी ने बाबा राघव चैतन्य को अपना गुरु बनाया और उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली। उसी समय उन्होंने अपनी सारी संपत्ति छोटे भाई के नाम कर दी और संसारिक कार्यों से विमुख होकर अपने को परमात्मा के कार्यों में लगा दिया। निस्वार्थ भाव से किये गये प्रयासों से उनकी प्रसिद्धि फैलने लगी। उनके उपदेशों से लोग प्रभावित और लाभान्वित होने लगे। गुरु बाबा राघव चैतन्य की शिक्षाओं तथा तनमय होकर अभ्यास करने से तुकाराम जी इतने सरल एवं निर्मल हो गये कि उनका क्रोध, अंहकार, द्वेष सब गल गया। उनके एक शिष्य की पत्नि ने क्रोध में आकर उनपर गर्म पानी उडेल दिया, मगर उन्हें किंचित क्रोध न आया। उन्होंने लिखा भी है कि -
रुसलो आम्हीं आपुलिया संवसारा । तेथें जनाचारा काय पाड ।।
आम्हां इम्ट मित्र सज्जन सोयरे  । नाहीं या दुसरें देवाविण  ।।
अर्थात्, मैं संसार से रुठ गया हूँ , नाराज हूँँ तो फिर भला मुझे क्या मतलब कि लोग मेरे साथ कैसा व्यवहार करते हैं। परमात्मा, ईश्वर ही अब मेरा मित्र, सखा और हितैषी है। तुकाराम का ईश्वर के प्रति आर्तनाद एवं विरह बढ़ता जा रहा था जैसाकि उन्होंने पद में लिखा भी है- शेवटींची विनती । ऐका ऐका कमलापती ।।
            काया वाचा मन ।  चरणीं असे समर्पण ।।
            जीवपरमात्मा, ऐक्यासि । सदा वसो हृदयेंसी ।।
            तुका म्हाणे देवा  ।  कंठी वसावे केशवा  ।।
अर्थ कि विनती यह करी है तुकारामजी ने इसमें कि मैं अपने आप को तन, मन, कर्म, और वचन से आपके चरणों में समर्पित कर रहा हूँ। मैं आशा करता हूँ कि तुमसे एकता अनुभव करता रहूँ। हे ईश्वर, मेरी वाणी में, कंठ में, उतर जाओ, बस जाओ, जिससे मैं तुम्हारी ही महिमा का गान करता रहूँ। आगे वे कहते हैं कि-
धरितों वासना परी नये फल ।  प्राप्तीया तो काल नाहीं आला ।।
त्लमली चित घातलें खापरीं  ।  फुटतसे परी लाहिचिया  ।।
तुकारामजी कहते हैं कि तुझसे मिलने की चाहत है मगर अभी तक मेरा प्रयत्न सफल नहीं हुआ है। शायद प्राप्ति में, तुझे पाने में अभी समय लगेगा। मेरा हृदय तेरे लिए विरह में ऐसे फटा जा रहा है जैसे तपते खप्पड़ में डालने पर धान फटता है। उनकी इच्छा तो ईश्वर दर्शन की थी और वह इतनी त्रीव थी कि जिसके आगे भूख-प्यास व देह का ध्या नही न रहता था- तुजविण मज कोण वो सोयरें । आणीक दुसरें पांडुरंगे ।।
               लगलीसे आस पाहा तुझें वास । रात्री वो दिवस लेखीं बोटीं ।।
               काम गोड मज न लगे हा धंदा । तुका म्हाणे सदा हेंचि ध्यान ।। तथा
न दे प्रभु मुझे कोई भी संतान
मयाजाल से मैं भूलूँ तुझे ।।
  न दे प्रभु मुझे, द्रव्य औ सुभाग ।
वही जो उद्वेग रह जाये ।। तथा आगे....
मुझसे बड़ा पापी नहीं होगा कोई, तथा आगे कहते हैं...
डर है अपार
छूटे न संसार....
अंह पर मेरे गिरने दो पाषाण
जलने दो भूषण नाम मेरा.....।   तथा
मन मेरा चंचल रहे ना निश्चल ।
घड़ी एक पल नही स्थिर ।।
और फिर एक दिन, एक पल ऐसा भी आया कि ईश्वर की, परमात्मा की, प्रभु की कृपा हो गई। अंदर प्रकाश की जगमगाहट बढ़ने लगी अपने अमिट प्रेम से तुकाराम जी की आत्मा ने अपने प्रियतम यानि ईश्वर को पा लिया, ईश्वर के चरणों में जगह बना ली, वास कर लिया। वे परमात्मा में लीन हो गये, समा गये, अब उन्हें परमात्मा हर दिशा, हर स्थान, हर प्राणी, हर वस्तु में दिखने लगा। द्वैत भाव समाप्त हो गया। तुकाराम जी यहाँ तक कहते हैं कि जब द्वैत भाव “ेमैं ” और ”तू” ही समाप्त हो गया, एकाकार हो गये तो इस अवस्था में कौन किसकी पूजा करता। यानि जीते जी का मरण हो गया, प्रभु मिलन का आनंद पा लिया। उन्होंने लिखा है कि मेरे रोम रोम में आनंद की लहर उठ रही है मेरी भावनाएँ ईश्वर में समा गई हैं जैसे उफान खाती नदियाँँ समुद्र में पहुँँचकर,गिर कर विलीन हो जाती हैं। तुकारामजी ने अभंग में लिखा है -
आपुलें मरण पाहिलें म्या डोलां । तो जाला सोहला अनुपम्य ।।
आनंदें दाटलीं तिन्ही त्रिभुवनें । सर्वात्मकपणें भोग जाला ।।
एकदेशीं होतों अंहकारें आथिला । त्याच्या त्यागें जाला सुकाल हा ।।
फिटलें सुतक जन्ममरणाचें । मी माइया संकोचें दूरी जालों ।।
नारायणे दिला वसतीस ठाव । ठेवूनियां भाव ठेलों पायीं ।।
यानि, अपना मरना खुद देखा। मेरे लिए समझना मुश्किल है ऐसी कोई और वस्तु नहीं जिससे उपमा दी जा सके। मेरे लिए तो विश्व में आनंद छा गया, मैंने पा लिया कि परमात्मा सब जगह है। जब तक मैं था मैं अंह से भरा था अब मेरा तन रीत गया, अंह भी तिरोहित हो गया, जब मैं ही न रहा तो कैसा मरना ? अपनी तपस्या के दौरान वैसे तो उन्होंने अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया मगर ”गीता“ की ओर अत्याधिक आकर्षित हो कर उन्होंने उसका अनुवाद संस्कृत से मराठी में किया जोकि तत्कालिक ब्राह्मण समाज को जरा भी न भाया परिणामतः उनका पुरजोर विरोध एवं बहिष्कार शुरु हो गया। न जाने क्यों तब के सनातनी ब्राह्मण गीता को पचा या स्वीकार नहीं कर पाते थे यानि गीता में ऐसा कुछ था जोकि ब्राह्मणों को चुभता था, उद्वेलित करता एवं धिक्कारता था। गीता का मराठी में अनुवाद व सरलीकरण फिर भला उन्हें क्योंकर स्वीकार होता अतः समाज के भारी विरोध के चलते उन्हें अपने कुछ अभगों एवं गीता  के अनुवाद को गुनाह  मानते हुए अपने ही हाथों चंद्रभागा नदी में डूबोना पड़ा, जिससे तुकारामजी का मन विद्रोह से भभक उठा और उन्होंने लिखा-
अच्छा किया प्रभु कुणबी बनाया ।
वर्ना मर गया होता दंभ से  ।।  तथा
विद्या कुछ होती । तो आपत्ति आ जाती ।।
गर्व से ऐंठता । तो यमपथ से जाता ।ं।
तेरह दिन तक उसी नदी के किनारे भूखे-प्यासे रहकर कठोर तप किया, ईश्वर को पुकारा, सिर्फ प्रार्थना और प्रार्थना, वे भी इस निर्णय के साथ कि-
तुका कहे मैंने रखा है निर्वाण ।
छोड़ दूँगा प्राण चंद्रभागा में ।।
तेरहवें दिन एक चमत्कार हुआ, आश्चर्य, एक महान आश्चर्य कि जो पोथी, डुबोई थी तुकाराम ने तेरह दिन पहले सबके सामने नदी में वह जल के ऊपर तैरने लगी। चमत्कार का प्रकाश चारों ओर फैल गया, खबर फैल गई। अब लोग उन्हें अवतार मानकर पूजने लगे, तब उन्होंने लिखा-
लोग कहते हैं मुझे देवता । मैं तो इसे अर्धम मानता ।।
अधिकार मेरा नहीं । करते हैं पूजा फिर भी ।।
मन जाने अपना पाप । कहे तुका माई-बाप ।।
शब्द व नाम की पूँजी के सहारे तुकारामजी ने प्रभु को पाया, उन्होंने लिखा भी है कि-
अणुरणीयां थोकड़ा । तुका आकाशएवदा ।।
तुका  म्हाणे आतां । उरलों उपकारापुरता ।।
यानि मैं तुका यों तो अणु से भी लघु हूँ, छोटा हूँँ, मगर साथ ही साथ आकाश जितना विशाल  भी हूँ। अब मैं केवल लोगों का भला करने के लिए जीवित हूँ, और उच्च कोटि का जीवन बिताकर, हजार, हजारों, लाखों को ईश्वर का मार्ग दिखाकर सन् 1650 में वे संसार से विलुप्त हो गये,विलुप्त यानि किसी को पता न लगा कि वे कहाँ गए, उनकी मृत्यु के बारे में कोई कुछ न जान सका, उनकी स्वाभाविक मृत्यु नहीं हुई। तुकाराम  जी की समकालीन संत बहिणाबाई ने लिखा है-
 तुकाराम तुम्हें देखते-देखते
 अकस्मात आया गुप्त रुप ।।
उनका देहवसान एक रहस्य ही रह गया मगर मृत्यु पूर्व के उनके अभंग कई मौजूद हैं-
प्रेत हुआ शरीर का भाव ।
श्मशान का ठौर लक्ष्य भया ।।  तथा
वैराग्य की उपले देह पर राखी......।
घट को घुमाया पैरों पास फोड़ दिया..... ।
तन था जिसका उसको समर्पित....  ।  इत्यादि....
मगर जो कुछ भी हुआ अनुपम हुआ, मीठा हुआ, सहज हुआ,गति से ऊपर सद्गति हुआ।

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