Thursday, November 16, 2017

शोर ...शोर ... और बस शोर है।

इस भीड़तंत्र में 
कोई भी नहीं है 
अपने भीतर बसा हुआ 
सभी तैश में,स्वार्थ में बौराये हुए 
सब तरफ जैसे टनटनाती घंटियों का ही 
शोर ...शोर ... और बस शोर है। 
एक-सी आवाजें   
लड़ती घंटियों की टकराहटें कर्कश 
सुनना नहीं चाहता कोई 
मगर आवाजें सब ओर हैं ....
नहीं टकराना चाहते 
रुकना चाहते हैं मगर 
रुक नहीं पाते हैं। 
आख़िरी में बाहर से 
बाहर ही विदा हो जाते हैं। 
     ------          सुरेन्द्र भसीन  

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