Monday, November 6, 2017

आभागा मैं

अब तो
हर बार ही 
यह हुआ है कि मैंने 
जब-जब तुम्हें छुआ है 
तो मुझे 
पत्थर का अहसास हुआ है।  
हर बार तुम्हारी निराशा,चुप्पी, उदासीनता ही 
महज मुझ तक हस्तांतरित हो, 
मुझे भीतर से भारी कर जाती है।  
मैं जो जमाने भर से 
भर-भरा कर 
तुमसे बतियाने,लिपटने, खाली होने आता हूँ 
मगर उल्टा भारी बोझ होकर लौट जाता  हूँ।  
ऐसे बैरंग-अवश लौटा मैं 
परिस्थितियों से संघर्ष नहीं कर पाता हूँ 
जमाने को जवाब नहीं दे पाता हूँ।  
सहज नहीं रह पाता हूँ और 
दिनोदिन चिड़चिड़ा होता जाता हूँ
हार ... हारता ही जाता हूँ ....। 
मगर मैं 
कितना अभागा 
किसी को कुछ कह भी नहीं 
पाता हूँ। 
    ----------        सुरेन्द्र  भसीन            


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