एक बादल
पानी का भरा हुआ
आकाश में मंडरा रहा था।
धरती के सूखे टुकड़े को देखकर
उस पर बरसना चाह रहा था।
मगर हवा के हिचकौलों में
मौका नहीं पा रहा था।
उधर धरती भी उसके इरादों से
नावाकिफ नहीं थी।
वह भी आँखों ही आँखों से इशारे करते जा रही थी।
बादल अपनी चाह से उसे सराबोर करदे
ऐसा मन ही मन चाह रही थी।
पर कहती कैसे ?
समाज से जो शरमा रही थी,
अपनी भावनाएं कह नहीं पा रही थी।
फिर बादल ने मौका पाया और
नीचे गोता लगाया
अपना प्रेमजल धरती पर बरसाया।
धरती का तन भीगा,मन भीगा
उसके अंग-अंग में, रोम-रोम में अंकुर फूटे
यों धरती ने गगन का प्रेम है पाया।
-------- सुरेन्द्र भसीन
पानी का भरा हुआ
आकाश में मंडरा रहा था।
धरती के सूखे टुकड़े को देखकर
उस पर बरसना चाह रहा था।
मगर हवा के हिचकौलों में
मौका नहीं पा रहा था।
उधर धरती भी उसके इरादों से
नावाकिफ नहीं थी।
वह भी आँखों ही आँखों से इशारे करते जा रही थी।
बादल अपनी चाह से उसे सराबोर करदे
ऐसा मन ही मन चाह रही थी।
पर कहती कैसे ?
समाज से जो शरमा रही थी,
अपनी भावनाएं कह नहीं पा रही थी।
फिर बादल ने मौका पाया और
नीचे गोता लगाया
अपना प्रेमजल धरती पर बरसाया।
धरती का तन भीगा,मन भीगा
उसके अंग-अंग में, रोम-रोम में अंकुर फूटे
यों धरती ने गगन का प्रेम है पाया।
-------- सुरेन्द्र भसीन
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