तुम्हें पता तो है ही
बादल,हवा,प्रकाश व जल का कोई आकार नहीं होता
हमारे एक-एक के लिये वही सही है
जिस रूप में वह हमें मिलता है दिख जाता है।
वरना श्रण - श्रण बदलते ही रहते हैं उनके आकार, गंध व रंग
मन व मौसम के हिसाब से।
यूँ ही ईश्वर भी बसा है
घट-घट में लिये हुये अनेकानेक भिन्न-भिन्न प्रकार
और हम हैं
पल प्रति पल बदलते उसकी आकृति में
उसका ही एक अंश
इसलिए हम उसे नहीं ढूंढ पाते क्योंकि
हम, हम नहीं वे ही हैं ।
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