तुम्हारी पूजा
मेरी पूजा से निष्चय ही बड़ी है प्रिय !
क्योंकि मेरी पूजा की धूप तो
जलाने से सिर्फ कुछ समय ही जलती है,
मगर तुम्हारी पूजा तो
मेरी और मेरे बच्चों की सेवा में अनवरत चलती है।
जो मुझे पल-पल यह सिखाती है कि
पूजा- मंदिर में, मूर्ति के आगे बैठकर, माथा नवाकर नहीं
तो फिर कैसे की जाती है?
कैसे मिलेगी मुक्ति ?
कैसे मिलेंगे राम ?
कैसे आयेगी शांति ?
जब तुम सब तिरोहित कर
दूसरे के जीवन के हो जाते हो।
अपने माँ-बाप,भाई-बहन,घर-गलियाँ सब कुछ तजकर
दूसरे के प्रागण में, उसका होने के लिये आते हो,
और फिर अपना अहं-अस्तित्व भुलाकर,
उसके होकर,
उसमें ही समा जाते हो।
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