काश हम भूल पाते
अच्छा होता कि हम बीते हुये को, अपनी गल्तियों को,
चोटों को, नरक की इस छटपटाहट को यकदम् ही भूल जाते
तो यह बड़ा सकून भरा होता।
मगर हमारे चाहे से नहीं होता यह कभी वरना
हम तो दिमाग का वह गला-पिलपिलाया फ़ोडानुमा
हिस्सा ही निकालना चाहते और कुछ तो
अपना दिमाग ही निकाल फैंकते।
यादें, दर्द, गलतियाँ,
भूल जाने का प्रयास करने से खत्म नहीं हो जातीं,
टीसती हैं अकेले में, खाली होने पर।
चाहे तो शरीर को दिन भर इतना थकाओ-दौड़ाओ कि
दिमाग पर भारी होकर जबरदस्ती उसकी सोचने की बेमानी
हरकत वह बन्द कर दे,
मगर, दिमाग पर पड़ी खरोंचे और
जख्मों के बिस्तर पर पड़े इंसान के लिये
यह अनचाहा तो होता ही जाता है लगातार …।
सिर्फ वक़्त और भाग्य ही लगा सकता है इसपर स्नेहालेप
वरना -"भूल जाओ। " कहकर सीख पाये बिना,
आत्मा के त्राण पाये बिना,
भला कहां कोई छूट सकता है -
अपनी उबलती-खौलती दुख भरी यादों से।
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