झूठ को, सपनों को
बड़े ही रागों-साजों, फरेबी-चित्रों,
दमकती रोशनियों और ऊँची कर्कश आवाजों के साथ ही
पेश करना,पहुँचाना पड़ता है,
दूसरों के कानों तक
दिमाग में घर करने को, भर्मित करने को।
मगर खोखले दावे टिक नहीं पाते
तैरते रह जाते हैं मस्तिष्क की उपरली सतहों पर और
एक अंतराल के बाद जल्दी ही लुप्त भी हो जाते हैं
मस्तिष्क की गुमनाम गुफाओं में।
उधर सच तो
चेहरे के भावों से,
मूक इशारों तक से ब्याँ हो जाता है,प्रेषित हो जाता है
बड़ी ही पाक-सहजता के साथ
जो हवा में स्वत: घुलकर
फहर जाता है चहूँ और,
दिशा-दिशा में साकार होने को,
समझ बन जाने को,
जन-जन में घर कर जाने को।
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