इस धरती से
ऊँचा
बहुत ऊँचा
बहुत बहुत ऊँचा उठने पर ही
आकाश का तारा बन सकता है कोई।
मगर फिर भी
फिर भी आकाश में देखो कितने तारे हैं,
और हमें वही दिखते हैं
जो सबसे ज्यादा टिमटिमाते हैं।
कुछ तो उनमें से भी ऐसे हैं
जो टिमटिमाते हुए, दिखते-देखते ही
आँखों से ओझल हो जाते हैं।
ऐसे में
जहाँ आकाश ही तारों से पटा पड़ा हो,
और ईश्वर तक देवात्माओँ से
ऊबा पड़ा हो,
वहाँ धरती पर मची
इस आपाधापी और स्पर्धा का क्या मतलब है?
हम अपनी इस बेतरतीब जिंदगी से
आखिर क्या उपलब्धि चाहते हैं?
जानों इस बात को कि
जो भी हम कर रहे हैं वे
हजारों-हजार लोग किसी न किसी रूप में कर चुके हैं या करते रहेंगे,
ऐसे में नया क्या है? और कब तक नया रहेगा?
फिर हम क्यों?
प्रकृति से अपनी खिल्ली उडवाते हैं, अपना मजाक बनवाते हैं?
जो जीवन हमें मिला है
उसके उद्देश्यों को, सीमाओं को समझें
उसको सार्थकता से, चैन से, संतोष से, समभाव से
"जीओ और जीने दो " के साथ
उत्सव की तरह मनायें
तो हमारे लिये
आकाश के तारे धरती पर ही उतर आयेंगे।
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