युद्ध जैसा खेल,
जल्दी-जल्दी नहीं खेला जा सकता इस संसार में
क्योंकि इसमें चली जाती हैं सैकड़ों-हजारों जानें,
होता है भारी रक्तपात और माली नुकसान।
तो उस प्रतिदवंदिता का, जोश का अहसास पाने के लिये ही
आयोजित किये जाते हैं खेल।
जहाँ प्रतिदवंदी उतरता है,
दूसरे को हराने के लिये, उसको नीचा दिखाने के लिये।
उसके अहं को चोट पहुँचाने और अपना परचम लहराने के लिये।
हार-जीत का यह प्रभाव
समभाव के सिद्धांत को तो तोड़ता ही है,
वक़्त आने पर आदमी स्वार्थी हो जाये - उसे इस भावना में लपेटकर
युद्ध के रक्त सने, प्रतिदव्न्दिता के जनूनी स्वाद से भी जोड़ता है।
और मानों, युद्ध की पिपासा,ललक,झक या सनक से पीड़ित इंसान
जैसे बार-बार शाकाहारी कबाब की स्टिक को झूठे स्वाद में
चूसता व झिंझोड़ता है।
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