इस धरा पर
देह धरते ही
हमारी चाहतें-कामनायें भी प्रज्ज्वलित हो,
लेती जाती हैं दावानल-वासनाओं का आकार
जो रस ले-ले कर भीतर ही भीतर
कंटीली झाड़ियों याकि अमरबेल-सी पलती,
घुली रहती हैं हमारी देह में जैसे-
दूध में पड़ी ख़तरनाक स्तर तक मीठे की मिक़दाद।
मीठा, जो नियंत्रण में हमें पालता है तो
अनियंत्रित हो तो हमारी हड्डियाँ तक गालता है
धीरे-धीरे अक्षम होने तक,
हममें कीड़े पड़ जाने तक।
आत्मा के कमजोर होने पर
कामनायें या चाहतें हीं
अनियंत्रित होकर लेती हैं दैत्यरूपी वासनाओं का नाम
जो जगह-जगह दौड़ाती हमें
जीवन के गली-कूचों में भटकने को मजबूर करती
श्रणिक, ऊपरी, खोखले सुख की अनुभूति कराकर
हमें बर्बाद करती जाती हैं।
क्योंकि ये हमारी देह में हैं
हम लाख चाहकर भी इन्हें छोड़ नहीं सकते
मगर आत्मा के नियंत्रण में भीतर
ईश्वर भक्ति की दिशा में
इसे मोड़ अवश्य सकते
अपने मोक्ष के लिये।
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