Monday, July 27, 2015

समर्पण

तुम 
हिलता-डुलता नदी का जल हो प्रिय !
तो मैं तुम पर, तट से,काठ की बँधी 
सहमी-ठिठकी नाव.…
तुम्हारी नन्हीं-मचलती हिलोर ही  
मुझे बार-बार थिरकाती है,
वरना काठ-लट्ठे की बनी,कीलों ठुकी नाव में 
अपनी जुम्बिश कहाँ बच पाती है..... 

काठ की हो,
हाड़-माँस की हो या गुदड़ी की,
जैसे कोई पुतली स्वयं गति नहीं कर पाती है,
वह तो नचाने वाले की उँगलियों की करामात 
पर ही लहराती है,
उसी तरह सम्पूर्ण समर्पण कर चुका मैं 
बस तुम्हारी हिलोर पर ही हिलता हूँ  .... 
तुम्हारी उँगलियों पर कठपुतली की तरह चलता हूँ … 
पानी में खड़ा-खड़ा चाहे गल जाऊँ मैं, 
अपने से बिल्कुल भी नहीं हिलता हूँ …
मगर तुम्हारी स्नेह हिलोरों से ही 
भीतर तक जोर-जोर से हिलता हूँ। 












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