Monday, July 20, 2015

क्या बहुत असभ्य नहीं हो चुके हम ?


कैसा मनोहारी प्रतीत होता है 
मुर्गी का चाव से, मनोयोग से अपने अण्डे सेहना,
कंगारु का अपने बच्चे को पाकेट में लिये-लिये पूरी धरती घूमना,
चिड़िया का चोंच से चोंच मिलाकर अपने चूजे को भोजन देना,
हथिनी का अपने हाथी को सूंड से नहलाना और सहलाना,
गाय का बार-बार रम्भाना - अपना बछड़ा चाटना और  साथ ही साथ उसे न जाने क्या-क्या सीख व ताक़ीद करते जाना,
च्यूँटी का फुर्ती से एक दूसरे से मिलना और अबोल निकल जाना 
द्रुतगति से  अपने लक्ष्य की ओर..... 
या फिर,खतरा होने पर पक्षियों का सारा जंगल चेताना।
चाटकर,सहलाकर,आवाज से,नेत्रों से 
जानवर ही नहीं इंसान भी व्यक्त करता था 
अपने मनोभावों को सभ्य कहलाने से, भाषा आ जाने से पहले। 
एक समान इस धरा पर विचरण करते हम 
जलने पर, कटने पर,सुख़ में, दुख में 
एक जैसा ही तो आज भी महसूस करते हैं सभी देहधारी,
मूल भाव व चिन्ताएँ भी एक ही रही हैं आज तक
फिर भी स्वार्थ और भाषा के दबाव में अपने सगोत्रिओं से 
अजनबी-सा व्यवहार करते,उन्हें सताते, उनका शोषण करते 
क्या बहुत असभ्य नहीं हो चुके हम ? 















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