कोई अनजाना हो,
पराया हो, सुदूर हो
फिर भी कितना भाता है......
उसे सुनना,उसके बारे में सुनना, उसका नाम लेना,
उसके बारे में सोचना,
तुम्हारे वजूद को पुलक से भर देता है,
तुम्हारा रोंया-रोंया ताजा हो खिल जाता है
उसकी याद भर से।
चाहे तुम्हें अहसास हो या न हो
मगर गुजर चुके अजीज को
चाहे कितना भी जोर देकर,
बोल-बोल कर रखो याद
मगर मस्तिष्क के तंतुओं से
वह धीरे-धीरे छूटता ही जाता है।
तुम्हारे गाढ़े-गूढ़े संबंध भी फीके पड़ते
एक न एक दिन
उसे विस्मृत कर देते हैं तुम्हारे मानसपटल से.....
जैसे समय के बियांबान सूखे कुएँ से
खिंच कर आती कोई खोखली आवाज़।
यथार्थ में,
अपनापा तो सिर्फ जीवित रहने तक ही काम आता है,
पीछे तलछट में तो
काई जमा सूखता पानी ही रह जाता है।
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