Friday, July 24, 2015

शब्द माया


शब्द
तीर की तरह ही नहीं, 
पत्थर की तरह भी करते हैं व्यवहार 
कि जहाँ फैंको वहीं चोट करते हैं और  
जहाँ छोड़ो वहीं गड़े पाये जाते हैं सदियों।
तुम्हारे ही जन्म देने के बावजूद कुसमय में 
तुम्हारे ही विरुद्ध गवाही देने के लिये 
न जाने कहाँ-कहाँ से जमा हो जाते हैं कचहरी में गवाह बनकर।
तुम्हारा ही दामन दागते-जलाते, रुस्वा करने भरी महफ़िल में 
तुम्हारे दुश्मनों के काम आते भी दिखायी देते कई बार.…। 

मगर ऐसा नहीं है,
शब्द कभी पक्ष या विपक्ष में किसी के 
कुछ नहीं कहते, करते। 
वे तो सदा रहते हैं  - मौन के मौन,
वहीं के वहीं  - समय में, आकाश में,
पुस्तकों में बाणी बनकर, सबका इतिहास बनकर। 
यह तो बदलता वक़्त व हालात ही हैं 
जो उन्हें तुम्हारे सामने काली सेना-सा सजाता है,
शतरंज के मोहरों-सा इस कदर लगाता है कि 
जीवन भर शब्दों की बाजीगरी करते रहे तुमसे भी 
अपने ही रचे शब्दों से पार पाना, 
उनसे पीछा छुड़ाना या उन्हें हराना  
बड़ा मुश्किल हो जाता है। 















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