Wednesday, July 8, 2015

पश्चाताप


 कई बार 
अपने कच्चे उतावलेपन में 
दूसरों के बात कहनी शुरू करते न करते 
हम दूसरे किनारे तक भी पहुँच जाते हैं,
और न समझने की गफ़लत करते 
अर्थों के विपरीत दिशा में दौड़ जाते हैं।
जहाँ से बात बनती नहीं बिगड़कर,
बेतहाशा लंबी हो, उलझ जाती है।  
वही नतीजे जो नाक पर रखे होते थे  
सैंकड़ों गुणा परे सरक जाते हैं हमारे हाथों से याकि 
संय्यम व धैर्य के अभाव में 
विषय से दूर हटकर हम 
आसनियों को अपनी मुश्किल बना,
माथे पे इस तरह सजा लेते हैं 
गोयाकि लोहे का भारी मुकुट पहन लिया हो जैसे। 

कैसे पाटा जाये 
इन संबंधों के अंतराल की इन खदानों को,
समझ से परे होती इन विपरीत परिस्थितयों का 
कोई सिरा, कोई हल 
अब नजर नहीं आता.…
पीछे जाकर बात पुनः शुरू करने से भी 
गुजरा हुआ, बीता हुआ वक़्त दौबारा पकड़ में नहीं आता..... 

शायद भूल जाने से,  
यूँ ही रीता वक़्त छोड़ देने से,
असीमित धैर्य दिखाने से 
भर जाये ये नासूर,
सहजता-सरलता की मरहम से..... ?















No comments:

Post a Comment