Sunday, June 28, 2015

सोच एक गुबार


जीवन तो 
पेड़ और पहाड़ का भी बीत जाता है एक न एक दिन 
यूँ ही एक जगह पर अड़े-खड़े 
क्योंकि जड़त्व में जीवन नहीं होता 
और वक्त किसी को भी 
सकते में नहीं रखता कभी। 

हो सकता है या नहीं,
चलना है या नहीं,
कहना है या नहीं,
मानू या न मानू .... 
सारे संशय, सारे उहापोह 
तो भीतर ही होते हैं इंसान के,
उसे जकड़ते-खेंचते हैं -
उसके घमंड के उपरले-अंतिम सिरे तक 
जहाँ तक कि 
सोच के, भावना के गुबार को
वह वहन करे, सहन करे -
फटने-फटने की  मनस्थिति तक … 
सोच-सोच कर अपना सिर पीटने तक   या 
फिर पागल हो जाने तक।  




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