Tuesday, June 2, 2015

भय का सच


भय हो भीतर 
तो छोटी-छोटी आवाजें ही बड़ा डराती हैं 
पीठ मोड़ते ही , पीछे 
ठीक पीछे आ खड़ी हो जाती हैं..... 
और फुसफुसाहटें तो जैसे आँधियाँ बनकर 
समूचा वजूद ही कंपकपाने लगती हैं …
ऐसे में एक छोटी चुप भी 
भारी हो जाती है कि उठाये नहीं उठती …
अपनी सांस की आवाज तक परायी होकर 
कहीं बाहर से आती  है और 
माथे पर छलछलायी पसीने की बेजान बूँदें 
पारा हो ठस जाती हैं , ढुलाये नहीं ढुलतीं। 

सचमुच 
चाहे चुंटी के आकर का ही क्योँ न हो 
भय, ऐरावत से भी भारी होता  है 
और काले कसैले धुँयें से भरा होता है 
जोकि विश्वास की हवा का एक झोंका पाकर ही उड़ जाता है ,
याकि सच की रोशनी में 
बादलों -सा छिटक जाता  है।     










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