भय हो भीतर
तो छोटी-छोटी आवाजें ही बड़ा डराती हैं
पीठ मोड़ते ही , पीछे
ठीक पीछे आ खड़ी हो जाती हैं.....
और फुसफुसाहटें तो जैसे आँधियाँ बनकर
समूचा वजूद ही कंपकपाने लगती हैं …
ऐसे में एक छोटी चुप भी
भारी हो जाती है कि उठाये नहीं उठती …
अपनी सांस की आवाज तक परायी होकर
कहीं बाहर से आती है और
माथे पर छलछलायी पसीने की बेजान बूँदें
पारा हो ठस जाती हैं , ढुलाये नहीं ढुलतीं।
सचमुच
चाहे चुंटी के आकर का ही क्योँ न हो
भय, ऐरावत से भी भारी होता है
और काले कसैले धुँयें से भरा होता है
जोकि विश्वास की हवा का एक झोंका पाकर ही उड़ जाता है ,
याकि सच की रोशनी में
बादलों -सा छिटक जाता है।
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