बहुत ऊँचे से
एक भारी पहाड़ी पत्थर की तरह गर्जन करता
गिरता है क्रोध छपाक से.....
शांत,कल-कल
बहती जीवन धारा में
और सब कुछ दहलाकर,
मोड़ देता है उसे गंत्वय से
और कभी,अवरूद्ध तक कर देता है समूचे जीवन प्रवाह को।
आँखों में आग,
नसों में उफनता लावा-तनाव,
उत्तेजना की परकाष्ठा में होश खोना
और फिर
सदियों से संजोया प्यार-विश्वास, तहस-नहस
हो बिखर जाता है एक झटके में
यूँ जैसे बड़े बवंडर के आने के बाद
छत उड़ जाती है सबके सिरों से......
अपनों का अलगाव हो या चाहे सामान का बिखराव
सालों-साल में आयेगा अब इनमें सुधार,
जब वक्त की शीतल जल धारायें
इस पत्थर को
रेत करेंगी और बहा ले जायेंगी
अपने साथ।
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