Wednesday, June 24, 2015

क्रोध



बहुत ऊँचे से 
एक भारी पहाड़ी पत्थर की तरह गर्जन करता 
गिरता है क्रोध छपाक से.....  
शांत,कल-कल 
बहती जीवन धारा में 
और सब कुछ दहलाकर,
मोड़ देता है उसे गंत्वय से 
और कभी,अवरूद्ध तक कर देता है समूचे जीवन प्रवाह को।   

आँखों में आग,
नसों में उफनता लावा-तनाव,
उत्तेजना की परकाष्ठा में होश खोना 
और फिर 
सदियों से संजोया प्यार-विश्वास, तहस-नहस 
हो बिखर जाता है एक झटके में 
यूँ जैसे बड़े बवंडर के आने के बाद 
छत उड़ जाती है सबके सिरों से......  

अपनों का अलगाव हो या चाहे सामान का बिखराव 
सालों-साल में आयेगा अब इनमें सुधार, 
जब वक्त की शीतल जल धारायें 
इस पत्थर को
रेत करेंगी और बहा ले जायेंगी 
अपने साथ।  






















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