माना कि
आत्मा - अजर है,अमर है
मगर देह पर पड़े
आघात के अनुपात में
वह हर बार डगमगा जरूर जाती है,
जैसे हवा के झोंकों से झपझपाती कोई दीप लौ ।
चेतना पर हुए वार से भी
आत्मा यूँ सिकुड़ती है
जैसे भय से सहमती काली रोयंदार बिल्ली,
जो फिर अरसे सामान्य नहीं हो पाती और
हादसे के काले रंग में डूबे पंजे के जहरीले निशान आत्मा पर आ जाते हैं
जो पोंछ्ने पर भी
अपने धब्बे छोड़ जाते हैं।
यूँ कुछ घटनाएं ,कुछ हादसे
जीवन भर भूले नहीं जाते हैं।
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