भरा
पूरा जीवन
तुम इस देह रूपी मुरली को धरे रहे
जब चाहा,जैसे चाहा, जोंसा चाहा राग इसमें बेसुरी फूंक से बजाते रहे।
कभी तुम
इस बांसुरी की अपनी भी गुनो
इसमें कौन,कब,कहाँ बसता है
और इसकी मोहक-मधुर धुन में
कौन श्याम हँसता है कुछ इसकी भी सुनो !
खेद है, तुमने इस बांसुरी से सदा
वासना,अहं,क्रोध के सुर बजाये,
यानि कभी भी
प्रेम,करुणा, त्याग के गीत नहीं गाये।
यह बांसुरी तुम्हें पशुवध या हिंसा के लिये नहीं दी गई थी जैसाकि
तुमने इसका उपयोग किया और
अपनी कलुषित भावना के सुरों को प्रकृति के जर्रे-जर्रे को सौंप दिया।
अब तुम जानते हो अपने कुकर्मों को
चाहकर भी तुम मिटा नहीं सकते और
जो घृणित स्वर लहरियाँ तुमने फहरा दीं आकाश में उन्हें मिटा या
हटा नहीं सकते।
अगर तुम सुनते
मुरली की बात तनिक ठिठक कर,
सहजता से, धर्य पूर्वक देते उसका साथ
तो तुम्हारे जीवन का, प्रकृति का सुर कुछ ओऱ होता
और तुम्हारे पूरे जीवन में
अँधेरा नहीँ,पाप नहीं,
गोकुल का श्याम होता।
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