जब से
मैंने जाना है
ईश्वर कहीं मेरे भीतर है
मैं अपने भीतर ही हो जाना चाहता हूँ,
बाहर से नेत्र फेरकर।
भीतर ही कहीं
शहर,गाँव,सड़कें,मकान बना लेना चाहता हूँ,
भीतर ही अपने
माँ,बाप,पत्नि,बच्चे व बंधु-बांधव बसाना चाहता हूँ,
और तो और
अपने मौसम और त्यौहार भी वहीं मनाना चाहता हूँ।
इन्द्रियों की मोह-माया,विषय-वासना,प्यास-पिपासा की
सारी सीमाओं-वर्जनाओं को तोड़कर,
आखेटक से निर्भय पंख फैलाकर - मुक्त
अपने भीतर ही ईश्वर की खोज में यात्रा पर निकल जाना चाहता हूँ।
ये यात्रा,
बनावट और बसावट भीतर हो
पहले संभव न था, मगर
जब से
यह जाना है और अंतर्मन से माना है मैंने कि
ईश्वर कहीं मेरे भीतर ही है
मैं अपने भीतर ही हो जाना चाहता हूँ
बाहर का सब छोड़-छाड़कर।
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