नहीं... नहीं
सच यूँ नहीं लेगा आकार कि
एक झटके से
समुद्र ले ले विशाल ऊँचे पहाड़ का आकार
और उसकी चोटियों पर
सीपियाँ चुनते तुम्हें लगे कि
यही मेरे झूठ भरे, ठांठें मारते समुद्र की
मुठ्ठी भर अस्थियाँ हैं।
नहीं
सच यूँ भी नहीं लेता आकार कि
वह आये दबे पांव, चुपके से, चोरी से
और तुम्हारे बगलगीर होकर चलने लगे
खामोश, बेअहसास।
वह तो जब भी आयेगा
सबको बता कर, आँखों में आँखें डालकर
हो जायेगा - मेरे,तुम्हारे, उसके
मन पर सवार,और
सारे भय व संशय मिटाकर
विश्वास का अध्याय लिखेगा आत्मा पर
सदा-सदा के लिये।
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