वेदनायें
कैसे जमीं रहती हैं सालों -साल किसी की देह में
देखना हो तो किसी पेड़ के चिरने से
उसके भीतर बनी आवृत्तियों से जानों
और अपने दर्द का बह जाना, शिराओं में गल जाना
अपना सौभाग्य मानों।
विंडबना है कि बात- बात में अपना पूर्वज मानकर
उसकी कसमें खाने वाला इंसान भी
कैसे पहले मौके में ही उसे चीरकर
उसको अपनी सुविधा बनाता है , उसके दर्द को नहीं पालता
तभी पेड़ का दर्द फैलाव पाकर भी पूरा नहीं होता और उसके
आंसू तक धरती नहीं छू पाते
उसकी कसमें खाने वाला इंसान भी
कैसे पहले मौके में ही उसे चीरकर
उसको अपनी सुविधा बनाता है , उसके दर्द को नहीं पालता
तभी पेड़ का दर्द फैलाव पाकर भी पूरा नहीं होता और उसके
आंसू तक धरती नहीं छू पाते
गोंदीले मोतियों से ढुलक कर शरीर से ही लटक जाते हैं
बार -बार उसी की देह का श्रृंगार बन,
जिसने अपने के चिरने व कटने की चीत्कार
पेड़ का यही गम सालता है उसे
तभी पेड़ जब तक ठूंठ बना खड़ा रहता है
अपने असंख्य हाथ उठाकर करता है आतर्नाद ही
हे ईश्वर! हे ईश्वर!
बार -बार उसी की देह का श्रृंगार बन,
जिसने अपने के चिरने व कटने की चीत्कार
सुनी हो बारम्बार।
पेड़ का यही गम सालता है उसे
तभी पेड़ जब तक ठूंठ बना खड़ा रहता है
अपने असंख्य हाथ उठाकर करता है आतर्नाद ही
हे ईश्वर! हे ईश्वर!
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