ओ मेरी माँ
मुझे बचपने में ही
इस भीड़ भरे शहर में
अकेले बेसहारा क्यों छोड़ गई थी ,
जैसे कोई शेरनी छोड़ देती है
शावक को घनघोर बियाबान जंगल में।
एक लम्बे समय तक,
इन सड़कों की जगमगाती नियोन लाइटों की शहतीरें
और दानव की तरह इधर- उधर भागती गाड्यिों की
रोशनियों की आंख्नो में चुभते किरचें
दोनों ही मुझे बहुत सताती रहीं
और इस भरे पूरे शहर में भी
मुझे अकेला होने का अहसास कराती रहीं।
तब मेरा विश्वास भी निरा मेरा वहम निकला कि
वक़्त व ऊम्र के बीतते - गुजरते मै इस भय से
अवशय छुटकारा पा लूंगा।
मगर यह हो न सका कयोंकि ये तो मेरे जिस्म की चमड़ी से चस्पां हो चुकी है।
और अब तो उम्ह्र के इस पड़ाव में कोई शक नहीं रहा अशेष कि मुझे तो इनके साथ ही जीते जाना होगा।
मगर मैं अपने बच्चोँ को
उनकी माँ के आंचल में पालकर
उनको इस दर्दीले अहसास से बचाना चाहते हूँ
और उनका परिचय (पालन )
एक निर्भय उजले सूर्य से करवाना चाहता हूँ।
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