Wednesday, May 27, 2015

समन्वय



इतने कठोर,
इतने अहिशुन मत बनो 
तुम अपनी इस देह के प्रति 
अगर प्रभु के दर्शन इसने तुम्हें नहीं भी कराये तो क्या हुआ
देह धर्म का पालन तो मनोयोग से किया। 
याद करो कि ता उम्रह 
जीवन रस को , चाहतों को , वासनाओं को 
तुमने इसी देह से जीआ 
और अनगिनत भावनाओं के आवेग को 
तुमने इस लपलपाती देह से ही पीया।  
आज जब यह खोखली हो चुकी देह 
नये अनुभवों को पकड़ने में असमर्थ है 
तो तुम बेगानों के हाथों इसे 
धधका-धधका कर जला डालना चाहते हो। 
तुम  यह  क्यों नहीं समझते 
कि इससे भी कठोर सजा की हकदार 
तो तुम्हारी आत्मा ही है 
जिसने संस्कारों व आदर्शों का संग्रह न करके 
उसके उजालों से इस देह को महरूम रखा,
जिसने इस देह को इतना भटकाया और 
इन्द्रिओं के हाथों में बेहतहाशा घुमाया उस 
आत्मा के कुसुर का तुमने क्या ?
न  उसे तुमने तपाया न गलाया और 
न ही उसे देह धर्म की सीमाओं व आत्मा धर्म का पाठ ही पढ़ाया। 
बस, छोड़ दिया मुक्त - स्वछंद 
दूसरी नई देह में उतर जाने को, भ्रिमित करने  को। 
अच्छा हो 
इसे भी यहीं तपाओ 
और देह से इसका समन्वय कैसा हो 
इसका पाठ पढ़ाओ। 
















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