सामाजिकता के
आवरण के नीचे
बड़ी मजबूरियों से सभ्य हुये हम
मूलतः तो एक पशु ही हैं।
जो हर पल छटपटाता है और
इस केंचुली के हटते ही
बड़ा सुख व सकून पाता है।
कभी सोचा
कि ये जंगल ,ये पहाड़ ,ये झरने
हमे इतना क्यों भाते हैं और
कैसे -कैसे उनके गुप्त व मौन ईशारों को पाकर
हम क्यों उनकी और खिंचे चले जाते हैं।
और क्यों हमारे न चाहते हुए भी,
और हमारे इन्हें गगनचुम्बी इमारतों के पीछे
छुपाने के बावजूद भी
ये हर रोज हमारे भीतर उभर -घुमड़ आते हैं।
सामाजिकता की नकली जहरीली सांस
अपने फेफड़ों में भरते हम
बार- बार ये क्योँ भूल जाते हैं कि
बड़ी मजबूरियों से सभ्य हुये हम
मूलतः तो पशु ही हैं।
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