Thursday, May 21, 2015

सामाजिकता



सामाजिकता  के 
आवरण के नीचे 
बड़ी मजबूरियों से सभ्य हुये हम 
मूलतः तो एक पशु ही हैं। 
जो हर पल छटपटाता है और 
इस केंचुली के हटते ही 
बड़ा सुख व सकून पाता है।  

कभी सोचा 
कि ये जंगल ,ये पहाड़ ,ये झरने 
हमे इतना क्यों भाते हैं और 
कैसे -कैसे उनके गुप्त व मौन ईशारों को पाकर 
हम क्यों उनकी और खिंचे चले जाते हैं। 
और क्यों हमारे न चाहते हुए भी,
और  हमारे इन्हें गगनचुम्बी इमारतों के पीछे 
छुपाने के बावजूद भी 
ये  हर रोज हमारे भीतर उभर -घुमड़ आते हैं। 
सामाजिकता की नकली जहरीली सांस 
अपने फेफड़ों में भरते हम 
बार- बार ये क्योँ भूल जाते हैं कि 
बड़ी मजबूरियों से सभ्य हुये हम 
मूलतः तो पशु ही हैं।  








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