Thursday, May 28, 2015

मृगमरीचका



तवे से तप कर तुम्हारा फुल्का प्रेम 
ही उतरता है मेरे हाथों 
जो हमारे बीच रोज़ थालियों में बंटता है 
तुम्हारा स्नेह बनकर और 
हमारा अणु -अणु रक्त पोर जाता है 
अनूठी मिठास बनकर। 

हर बार
जब हम भीतर होते हैँ घर के 
तुम्हारी सुविधाओं के छाये तले 
तब तुम हमारे लिये कुछ और जुगाड़ने की बिसात में 
ग्राहकों की इचछाएँ पूरी कर रहे होते हो या 
बीच सड़क के बिगड़े ट्रक या बस को सधा रहे होते हो या 
चलते रेल के इंजन के साथ पटरियों पर उनींदे दौड़ रहे होते हो 
किसी और को गंतव्य तक पहुंचाने के लिये।   

तुम्हारे पास 
हमारी हर जरूरत का आभास 
उसके उभरने से पहले ही है 
तुम उन्हें 
अपने तजुर्बे व पूर्वानुमानों से भाँप लेते हो 
और हमारे कहते न कहते ही उन्हें अपनी 
छोटी -सी हां से ढांप लेते हो। 

सालों साल से 
अल सुबह आईने के समक्ष दाढ़ी रगड़कर तुम 
तैयार होकर काम पर निकल जाते हो और 
दिनों -दिन भीतर से सूखे-खोखले व पुराने हुए जाते हो जैसे कोई 
सोफ़ा सेवा देता -देता पुराना होता जाता है, ये अहसास 
हमें रोज़ नहीं होता मगर कभी,
कभी तो  होता  है उसमें कुछ कड़कने के बाद.... 

समझो इसी तरह 
घर को बनाते- बनाते 
इंसान खुद सदा के लिये बेघर हो जाता है। 
और अपनों की चाहत में 
उनसे ही बिछुड़ जाता है।     





















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