Wednesday, December 18, 2019

सर्दी - एक प्रलाप

वो सर्दी
जो मेरी जवानी में
आँख मिला न पाती थी कभी
उसने अब मुझे हरा दिया है
मेरे हाड़ और आत्मबल को कंपा दिया है
मुझे बिस्तर पर ढा दिया है...
दवाइयों की अनगिनत गोलियाँ
वैसे मैंने चलाईं हैं उसपर
मग़र वो मरती ही नहीं
सीने पर चढ़ी है आजकल मेरे
पहाड़-सी खड़ी है आगे मेरे
उसने तो मुझे रूला दिया है...
मुझपर अपना कर्फ़्यू लगा
चारों खाने चित्त कर
बिस्तर पर लिटा दिया है...
अब जब तक वो नहीं जायेगी
तबतक मैं गर्म पानी ही पीऊँगा
गर्म पानी से नहाऊँगा
न कहीं आऊंगा
न कहीं जाऊँगा
रजाई में घुसा-घुसा
सर्दी..बड़ी सर्दी... ही चिल्लाऊंगा।
      -----    सुरेन्द्र भसीन




Thursday, December 12, 2019

वजह

मुस्कुराओ
तो मुस्कुराते ही चले जाओ
वजह मत ढूंढने लग जाओ
कभी मुस्कुराने की...
फिर मुस्कान खो जाती है
अपनी हँसी भी
परायी हो जाती है...।
याद में भी नहीं आता तब फिर
कि हम मुस्कुराये थे कभी
वजह से नहीं
बेवज़ह भी...।
      -----    सुरेन्द्र भसीन

Tuesday, December 3, 2019

सही है कि
बोलना तो
लोगों को नहीं आता
चुप रहना भी नहीं आता...
गलत वज़ह से गलत जगह पर चुप जो रह जाते हैं-
समाज में,पेशे में, सम्बन्धों में -
इसलिए पिछड़ जाते हैं/मात खा जाते हैं/
दब्बू, भीरू या डरपोक भी कहलाते हैं
अपनी बहन-बेटियों की रक्षा नहीं कर पाते
सड़क पर हुए हादसों को, हिंसा को, बलात्कार को
दूसरों के साथ हुआ बताते हैं
अपने साथ हुआ यह समझ नहीं पाते
गलत वजह/गलत जगह पर चुप जो रह जाते हैं
इसलिए अगला शिकार बन जाते हैं..
          ------           सुरेन्द्र भसीन

Sunday, November 17, 2019

मौत से पहले

सुना है
वक्त नहीं है किसी के भी पास...
शहरों में वक़्त ज्यादा तेजी से
बीता जा रहा है
लोगों पर बुढ़ापा भी
जल्दी आ रहा है
वक़्त तेजी से
जिस्मों को खा रहा है
आदमी अंदर तक भुरभुराता
छीजता जा रहा है
जल्दी ख़त्म हुआ जा रहा है।
अपनी मौत से पहले मरा जा रहा है।
         -----     सुरेन्द्र भसीन 

Tuesday, November 12, 2019

चाहतों के दायरे

पूरा ही नहीं पड़ता
कोई सा भी दायरा
चाहे कितना भी बड़ा ही
क्यों नहीं खींचें हम अपनी चाहतों का...
सदा बहुत कुछ
बाहर ही रह जाता है....और...
आखिर में अपने दायरे में आदमी
अकेले ही खड़ा रह जाता है
न हँस पाता है...
न रो पाता है...
अपने ही दायरे में सिमटा सिमटा
छोटा बिंदु हो जाता है...
     -----   सुरेन्द्र भसीन

सहजता

सहजता
धीमा बोलना
सहज बोलना
मधुर बोलना ही ठीक है...
मानाकि ऊंचा बोलना या
कर्कश शोर क्षण भर तो प्रभावित
कर जाता है
मग़र शीघ्र खत्म होकर किसी काम नहीं आता है।
धीमा बोलना
सबको भाता है
सच का दम रखता है
ह्रदयों में बस जाता है
लंबे समय तक काम आता है।
     -----    सुरेन्द्र भसीन

व्यक्तित्व

व्यक्तित्व
तुम
भीतर तक
दुख पाए हुए हो
जैसे दीमक खायी कोई लकड़ी...
ऊपर से साबुत दिखती
मग़र भीतर से तमाम खोखली...
वज़न नहीं उठा पाती
भुरभुरा कर टूट जाती...
तुम भी
ज़रा-सी तखलीफ़ में भरभरा जाते हो
बिखर कर
अपने ही ऊपर आ जाते हो
रुआंसे हो जाते हो...
     ----    सुरेन्द्र भसीन




Wednesday, November 6, 2019

कई कई बार
दृष्टि बस वही देखती है
जोकि हम देखना चाहते हैं
बुद्धि वही समझती है
जो हम समझना चाहते हैं
दो जमा दो आठ अगर
बैठ गया किसी वक़्त दिमाग में तो
चार फिर हो ही नहीं पाता है
अपनी इन्हीं जरूरतों-इच्छाओं को
जहन में समेटे गरीब
नेताओं के सम्मोहन के जाल में
तब फंस जाता है जब चुनाव में वायदों का
झुनझुना उसके कान में बजाया जाता है
और हर चुनाव के बाद
ठगे,अवाक से हम
यह नहीं झ पाते कि
हमसे हर बार हमारे ही विरूद्ध
षड्यंत्र कैसे कराया जाता है।
       ------     सुरेन्द्र भसीन

Tuesday, November 5, 2019

समायिक प्रश्न

मुझे
मालूम है कि
प्रदूषण की विकरालता से जब
पूरी धरती तबाह होने को आयेगी
तो तब भी 
पीछे बचे चंद नकारा नपुंसक राजनैतिक बुड्ढे जो अपनी डालों(पदों)
से चिपटे काँव-काँव करते और
एक दूसरे पर दोषारोपण करते
यह तय नहीं कर पायेंगे कि
यह सब किसकी वजह से हुआ?
...आज प्रश्न बड़ा यह है कि-
मुश्किल यह प्रदूषण है याकि
काँव-काँव करते यह काइयाँ निठल्ले बुड्ढे?
निवारण पहले किसका किया जाये?
बचना, बचाना हमको किससे है?
धोना/रोना हमको किसको है?
     ------           सुरेन्द्र भसीन

Wednesday, October 23, 2019

अंदर से तो
आप समझते ही हैं कि आपके साथ क्या सही हो रहा है और
क्या गलत?
कौन सही कह कर रहा है और
कौन आपका सिर्फ मुँह धो रहा है? कौन वक्त पर काम आयेगा आपके
और कौन चला जायेगा
मुंह मोड़कर
बीच बियाबान छोड़ कर।
मग़र अहम में/तारीफ के
स्वाद में डूबे तुम उनसे
जो आप अपना पल्ला नहीं छुड़ाते हो तो कल यही तुम्हें काटेंगे आस्तीन के सांप बनकर
पद के मद में तुम्हें यह क्या नहीं सूझता?
कि आगे पश्चताप का बदबूदार नाला आने वाला है
जिसमें गिरकर तुम्हारा भूतकाल काला हो जाने वाला है।
         ------     सुरेन्द्र भसीन

Thursday, October 10, 2019

आँसू
तो राम की आँखों
में भी आये थे
सीता हरण के बाद।
जार जार भी रोये थे
लक्ष्मण मूर्छा के बाद।
व्यथित भी हो गए थे
अपने पिता के देहावसान के बाद।
तो क्या?
सब को संताप होता है
ये सभी कुछ होने के बाद...
मगर जीवन तो फिर भी चलता ही है
यह सब कुछ होने के बाद।
निर्मोही थे कृष्ण महाराज
क्षण भर में बिसार देते थे
यह सबकुछ होने के बाद।
      ------       सुरेन्द्र भसीन

Monday, October 7, 2019

उसने मुझे सिखाया
उसने मुझे समझाया
उसने मुझे करके भी बताया
मग़र मेरे समझ नहीं आया।
किंतु जब वो चली गई तो
उसके विरह के प्रकाश में
मुझे समझ आया कि
प्यार क्या है?
       -----     सुरेंद्र

Saturday, August 31, 2019

मेरे
एक-एक शब्द को
एक-एक पल को
वह जी लेना चाहती थी
पी लेना चाहती थी चातकी बनकर
वर्षा बून्द के समान
धरती पर गिरने/किसी के सुनने
किसी के समझ लेने से पहले ही
सर्वप्रथम!
उसकी पिपासा शारीरिक न होकर आत्मीय थी
प्रेम प्रदर्शन से कोसों दूर
सरल सहज जैसे
मुझ पर न्योछावर होती
सर्दियों की गुनगुनी धूप!
       -----     सुरेन्द्र भसीन

Friday, August 30, 2019

मिल जाते हैं
जीवन के रास्ते में मील के पत्थर
जो बताते हैं कि
रास्ता कितना तय हो गया कि
कितना बाकी रह गया...
आदमी कितना खर्च हुआ और
कितना बचा रह गया या
आदमी कितना सह गया
और कितना उसको झेलना रह गया।
जन्मदिन भी कुछ इसीलिए/ इसी कदर आते हैं
जब आईने में अपने सफेद हुए बाल देखे जाते हैं
तब हमारे ही बच्चे हमें अकेला छोड़
हमसे दूर विदेशों में बस जाते हैं
हम अपने किए पर चाहे पछताते हैं
तब हमारे ही बाल
हमारे नोचने के काम भी नहीं आते हैं।
          -------      सुरेन्द्र भसीन

Thursday, August 29, 2019

लंबी
मुश्किल हो गई जीवन यात्रा में
जब कोई पड़ाव/आराम नहीं आता
तो मन बड़ा घबराता है कि
यह रास्ता मुझे किस रसातल में लिए जाता है याकि
इतना लंबा क्यों है?
खत्म होने को क्यों नहीं आता है...?
संस्कार,पूर्वजों,देवी-देवताओं का
आशीर्वाद तभी हमारे काम आता है
जो हमें
धैर्य, सस्यम से लगातार
उद्देश्यरूपी दिए की ओर
बढ़ते जाना सिखाता है
वरना बीच रास्ता भटकते/अटकते
देर नहीं लगती...
मनुष्य मनोरंजन में डूबकर
कहीं का कहीं और ही पहुँचकर
सब बर्बाद कर जाता है।
      -----      सुरेन्द्र भसीन

Monday, August 26, 2019

घूरे का ढ़ेर

आखिर
मिलना तो
सभी को सभी कुछ है भाग्यानुसार ही
तय वक़्त पर
मग़र वक़्त का इंतजार/धैर्य किस किसी को है...
सब
हड़बड़ी में
वक़्त से पहले ही
लूट लेना चाहते हैं मिलने वाला सब कुछ
जैसे अजन्मा बच्चा पेट से
कच्चा फल पेड़ से
याकि उतार लेना चाहते हैं
वक़्त के चलते चॉक से
मिट्टी का अधूरा निर्माण -
टूटा सकोरा, दिया या घट...
छीन लेना चाहते हैं
अपने ही भाग्य से
अपना सौभाग्य!
दुर्भाग्य बनाकर याकि
असभ्यता/अधैर्य का ताजातरीन नमूना...
और यूँ बढ़ता ही जाता
धरा पर
एक घूरे का ढ़ेर...
      ------     सुरेन्द्र भसीन
       

Monday, August 19, 2019

प्रेम का
ऐसा व्यवहार,
ऐसी आशा - अभिलाषा,
ऐसा एकाधिकार
ये प्रेम रूपी ह्रदय नहीं
स्वार्थी मस्तिष्क बोल रहा है
अपने किए को लाभ-हानि के तराजू पर
तोल रहा है।
 ------      सुरेन्द्र भसीन

हमारे बुजुर्ग

हमारे बुजुर्ग

चलती नहीं है
अब उनकी
मग़र वे अब भी
चलाना चाहते हैं
न चलने पर बड़ा छटपटाते हैं
इसलिए चलती गाड़ी में फच्चर(अड़ंगे) अड़ाते हैं।
मरने तक
हितों से/कुर्सी से
चिपके रहना चाहते हैं
वक़्त रहते अपने को
नए हालातों के लिए तैयार नहीं किया
इसलिए अब बदलना नहीं चाहते।
बूढ़े हो चुके हैं मग़र
कहलाना नहीं चाहते
नवपीढी पर अविश्वास/असुरक्षा के कारण
कुछ छोड़ना/देना नहीं चाहते
गुलामी लगता है उन्हें
अपनी संतान का कहा मानना इसलिए
अपने में सिकुड़-सिकुड़ जाते हैं मगर
अपनों से तालमेल नहीं बैठा पाते...
सच है
वक्त तो गुजर ही रहा है/रहता है
सदा पुराना जाता है
तभी तो नया आता है
कोई चाहे या न चाहे...
समझे या न समझे...
       -------     सुरेन्द्र भसीन






हकीकत

हकीकत

जब लोग
इंसान से न उम्मीद हो जाते हैं
तो पत्थर रूपी भगवान से
मांगनें लग जाते हैं
आश्चर्य है कि वहाँ
उनके काम बन भी जाते हैं।
पत्थर देवता हो जाता है
इंसान लेवता(मंगता)...
देखो !
प्रकृति से कैसे-कैसे
सम्बन्ध निभाये जाते हैं।
सच है कि
वैसे तो पत्थर मारने और तोड़ने के काम
में लाये जाते हैं ...
क्या पत्थर
तोड़ने के काम आते हैं?
वक्त आने पर पत्थर ही
देवता हो जाते हैं।
     ------ सुरेन्द्र भसीन

Sunday, August 18, 2019

हौसला/हिम्मत

यूँ तो
हौसले या हिम्मत का कोई आकार नहीं होता
वह हाथी से ज़्यादा
चींटी में भरा होता है
जो अपने से कई गुणा वज़न उठाती है और
मौका पाकर हाथी के कान में घुसकर
उसको नाको चने चबवाती है।
जहाँ संशय से घटता है हौसला तो
दृढ़ निश्चय से बढ़ भी जाता है
जिसके सहारे अदना-सा आदमी भी
बड़े-बड़े काम कर जाता है-
कभी पहाड़ दरकाता है तो
कभी समुद्र खंगालता है तो
कभी आकाश में कुंलाचे भरता है...
हौसला है तो कोई भी 
यह सब कर पाता है वरना
वहीं का वहीं रह जाता है।
       ------       सुरेन्द्र भसीन

Sunday, July 28, 2019

मंजिल
ही नहीं है सब कुछ
इंतजार,रास्ते और अनुभव भी
है बहुत कुछ
यूँ मंजिल की चाह में पगलाए
हम सदा दौड़े चले जाते हैं
रास्तों का, अनुभवों का, इंतजार का
आनंद नहीं ले पाते
इसलिए हमारे जीवन में त्यौहार आते हैं
ये वो बाग-बगीचे हैं
मीठे झरने या प्याऊ हैं पानी के
छायादार बृक्ष हैं
पूर्वजों का दिया आशीर्वाद हैं
जिनके तले बैठकर,रूककर,मनाकर
हम आराम पाते,खुशी मनाते हैं
पल पल का सुख
संजोकर ही हम
मंजिल को पाते हैं।
        -------      सुरेन्द्र भसीन

Thursday, July 18, 2019

Sky star

The Earth
elevated
very high
up so high on the
sky can become a star.
But then
again, look at how many stars in the sky,
and look what we
most twinkle.
Some of them are similar
The twinkle, look-see
are the eyes disappeared.
So
the sky where the stars have had to lure him,
and to God Dewatmaoँ  the
sick lying
there on Earth resembled
the rush and competition mean?
We The random life
achievement What do they want?
lives to the point that
we are also the
thousands of people who have in some form or  continue to do,
so what's new? And how long will the new?
Then why
are Udwate jesting with nature, have their fun extension?
The life we have received
His purposes, understand the limitations
of her significance, peace, satisfaction, with equanimity
, "Live and live two with "
the kind of celebration celebrate
our guests
the stars of heaven on Earth will come off.
         ---------       Surinder Bhasin
आकाश का तारा

पृथ्वी
ऊपर उठाया
बहुत ऊँचा
इतना ऊपर
आकाश एक स्टार बन सकता है।
परन्तु फिर
फिर से देखिए, आसमान में कितने तारे हैं,
और देखो हम क्या
सबसे अधिक ट्विंकल।
उनमें से कुछ समान हैं
ट्विंकल, देखो-देखो
क्या आंखें गायब हैं।
इसलिए
आकाश जहां सितारों को उसे लुभाना पड़ा है,
और भगवान देवतमाओ को ma
बीमार पड़ा हुआ
वहाँ पृथ्वी जैसा दिखता था
भीड़ और प्रतियोगिता का मतलब है?
हम यादृच्छिक जीवन है
उपलब्धि वे क्या चाहते हैं?
इस बिंदु पर रहता है
हम भी हैं
हजारों लोग जो किसी न किसी रूप में हैं या करना जारी रखते हैं,
तो क्या नया है? और कब तक नया होगा?
तब क्यों
क्या उडवटे प्रकृति के साथ झूम रहे हैं, क्या उनका मज़ेदार विस्तार है?
हमें जो जीवन मिला है
उसके उद्देश्य, सीमाओं को समझते हैं
उसकी सार्थकता, शांति, संतुष्टि, समभाव के साथ
, "जियो और जीने दो" के साथ
जिस तरह का जश्न मनाया जाता है
हमारे मेहमान
पृथ्वी पर स्वर्ग के तारे उतर आएंगे।
         --------- सुरिंदर भसीन
aakaash ka taara

Wednesday, July 17, 2019

व्यंग्यात्मक हँसी

कौन
हँसना नहीं चाहता...?
हँसना तो मैं भी चाहता हूँ
मग़र ढूंढने पर भी
दूर-दूर तक
हँसने की कोई वजह नहीं पाता हूँ।
बिना वजह अगर हँसू तो
मूर्ख ही तो कहलाता हूँ...
फिर मैं क्या करूँ?
हँसना तो मैं भी चाहता हूँ
मगर
क्या अच्छा/हँसने योग्य
घटित हो रहा है भला जीवन में/राजनीति में
जो मैं हँसूं?
हास्य तो
कपूर की तरह काफ़ूर हो चुका है
हास्य-व्यंग्य में से
बस व्यंग्य बचा रह गया है जीवन में
तो जब तक
हँसी की वजह नहीं मिल जाती जीवन में
तब तक
व्यंग्यात्मक हँसी
तो मैं
हँस ही लेता हूँ...।
         ---------     सुरेन्द्र भसीन

Monday, July 15, 2019

वक़्त की मियाद

उन्होंने
मिलते ही कहा
"तुम्हारे लिए अलग से वक़्त निकालेंगे
बैठेंगे! बात करेंगें तुम पर तब..."
मैं सोचता हूँ
कि उनके पास वक़्त कहाँ?अब
वे तो अपने को जोर जोर से बजा रहे हैं
कहते जा रहे हैं,अपने को गा रहे हैं...
उनके पास किसी को सुनने का
वक़्त कहाँ रहा अब।
फिर  शायद वे जायेंगे
(लिफ्ट से कहीं ऊपर
और मैं रहूँगा यहाँ, नीचे...
पिताजी के साथ भी कहाँ जा पाया था..?
विधि का विधान..?
कि उसने उन्हें अकेले ही बुलाया था।)
न जाने किस रूप में
किस स्थान पर लौट के आयें
या आ भी न पायेंगें
कि बस
कल कल बहता वक़्त का जल हो जायेंगे...।
       -------        सुरेन्द्र भसीन

'सच' एक बीमारी

मैं तो
कितनी बार
अपने को समझाता हूँ
कि दुनियादार बनो!समझदार बनो!
तब ख़ासकर तब
जब मैं किसी नयी जगह जाता हूँ याफिर
नये लोगों के बीच जाता हूँ।
मग़र हर बार
हर बार न चाहते हुए भी और
लाख रोकना चाहकर भी
सच मेरे मुँह से निकल ही जाता है
और मेरा सारा प्रयास असफल
ही हो जाता है।
सब समझ जाते हैं
ये हमारे बीच रहने/बैठने के योग्य नहीं
ये समझदार नहीं,दुनियादार नहीं।
ये सच का रोगी है
ये ज़रूर कोई कांड करवायेगा
किसी दिन ख़ुद तो मरेगा ही
हमें भी मरवायेगा।
कोई तो कह भी देता है इशारे से कि
भैया!  पहले इस बीमारी का ईलाज करवा
फिर हमारे बीच में आ
वरना हमारे बीच में मत आ
इस सच को लेकर भाड़ में जा!
          -------     सुरेन्द्र भसीन

Sunday, June 23, 2019

...तो प्रतीक्षा ख़त्म
          आ गई है मेरी कविताओं भरी किताब "खिड़की एक  आशा "
इसमें  मेरी  82 कविताएँ  हैंजो  104 पृष्ठों में  समाहित  हैं। भूमिका  लिखी  है  डॉ बलदेव वंशी जी (मेरे पिताजी ) ने अपने स्वर्गवास से पूर्व  ही  वे मुझे यह आशीर्वाद दे गए थे।  प्रस्तुत है उनकी भूमिका के अंश -
"अंधकार के किले में उजाले की सेंध "  

   

नयी, आज की, अधुनातन,प्रश्नाकुल, दव्न्दात्मक आध्यात्मिकता इन कविताओं की आधारभूमि है।  सतर्क आस्तिकता है।  ऐन आज के व्यक्तित्व के तनावों, अस्तित्व के चहुंओर से घिरे होने के संकटों में वह किस का सहारा ले, किसे पुकारे -  उस की असहायता निःसहायता को दिनोंदिन गहराते जाने वाले वैश्यिक हिंसात्मक क्रम सामने हैं।  व्यक्ति इन के सामने हतप्रभ है।  

एक बिल्कुल नया, उभरता युवा स्वर।  अपनी औघड़ता में भी सुडौल ज्ञानात्मक संवेदना की सघन पहचान करातीं कविताएँ मानवीयता का भरोसा कहीं भी शिथिल नहीं होने देतीं। संबोधात्मक भावावेगी और कहीं विचारशमित गंभीर मुहावरा पाठक को अपने में बाँधने की ताव भी बनाये रखता है। 
अंध-आस्था और विचारान्ध नास्तिकता के मध्य स्वानुभूत तलाशी-आजमायी आस्तिकता बड़ी अश्वस्तकारी है। युगों पुरानी, तही-बनी, परम्परित-हस्तांतरित होती आयी पूजा-पद्ध्त्तियोँ तक को अध्यात्म की वैज्ञानिक तर्कना पर कस कर अपनाती-उपलब् करती जागृत विवेकशीलता हमारा-पाठक का विश्वास जीतती प्रतीत होता है 

हर प्रकार की जड़ता, काहिली, लापरवाही पर भी बड़ी सूक्ष्म,तेज व्यंग्य प्रहार भी जगह-जगह मिल जायेगा, किंतु अपनापन और हितचिंतक भाव लिए हुए। 
वर्तमान में जीवन-अस्तित्व को भीतर तक प्रभावित करने वाले राजनीति,बाजार,अर्थाचार आदि को ले कर आज प्रचलित सोच-व्यवहार को भी पर्याप्त अवकाश-स्थान प्रस्तुत है।
आज के समांतर जीते हुए हजार उद्वेलनों, द्वन्द्वो, संकटों, संघर्षों में घिरे व्यक्ति के अंतः संवाद सरीखी शैली में तथा स्वयं ही स्वयं की आत्मशक्ति को पुकारती-जगाती मनुष्य की इयत्ता से साक्षात्कार कराती कविताएँ हैं। 
अज्ञात मनोवैज्ञानिक परिसरों के धुंधलकों, भयों, भ्रमों, तहखानों में जहां व्यक्ति बाहरी मारों हारों  में पिट कर पहुंचता है, वहां भी कवि सुरेन्द्र भसीन हार मानकर  पस्त होने के बजाय जीवन की दुर्दुष, दुर्वह आत्मशक्ति के बल पर उबर आने का छोर नहीं छोड़ता। उस की आत्मदृष्टि ही अध्यात्म दृष्टि और भगवत्ता है। 
इन कथनभंगी कविताओं में शब्द-पदों की आवृति अर्थ को खोल कर रखने से गूढ़ार्थ को स्पष्टतर करने की सुविधा जुटाती है। 
कहीं-कहीं किये गये मिथकीय प्रयोग भी आकर्षक हैं। 
अन्य सामाजिक संदर्भों की कविताएं हों या इतर संदर्भों की उन की पृष्ठ भूमि में उक्त चेतना की उजास सतत बनी रहती है।  गहन भारतीय पारिवेशिक आस्थाशीलता हर कहीं स्पंदित है। युवा कवि सुरेन्द्र भसीन मानव-निर्मित वर्तमान विराट अंधकार के किले में उजाले की, आध्यात्मिक विश्वास के बल पर, सेंध लगाने को तत्पर है ! स्वागत है

                                                         
बलदेव वंशी 
                                                    बी-684, सैक्टर 49,
                                      सैनिक कॉलोनी, फरीदाबाद 121001
                                              
                   विमोचन आदि कराने की मेरी  हैसियत नहीं है। इसी को ईश्वर का, बड़ों का आशीर्वाद
मानते हुए मैं यह सभी को समर्पित करता हूँ।  कृपया ग्रहण करें।  
- सुरेन्द्र भसीन

Saturday, June 8, 2019

वे
सभी अपने हैं मग़र
अभी दुश्मन के बरगलाए हुए हैं
और हम उन्हीं अपनों से ख़ौफ़ खाये हुए हैं।
हाँ!वे आते हैं झुंड के झुंड
हाथों में पत्थर लिए-लिए और
हम अपनी ही संगीनें अपने
सीने तले दबाये,थरथराये
उन्हें ये खोखले आदेश मिमियाते हैं-
कि वे लौट जाएँ, हमारी संगीनों के साये
में क्यों बार-बार आते हैं।
हम खून खराबा नहीं चाहते हैं।
हमें मालूम है कि वे किसी मजबूरी के
सताये हुए हैं
इसलिए हाथों में पत्थर लिए संगीनों के सामने
अपना सीना अड़ाये हुए हैं और इस समय
गैरों के बरगलाए हुए हैं।
       -------      सुरेन्द्र भसीन

Thursday, June 6, 2019

मैं प्यासी धरती कई जन्मों से
मुझे अपने प्रेमजल से नहलाओ
मैं बंजर धरती हूँ
सनम बादल बनकर
मुझपर बरस जाओ
तुम हो श्याम कारे... कारे
घन.. घन घनघोर...गहरारे
मैं हूँ गोरी पनिहार
मेरे घट को भर दो
मेरा जीवन सम्पूर्ण करदो
मेरे अंग अंग को सहलाओ
मैं हूँ प्यासी धरती
मुझे प्रेमजल से नहलाओ
सनम बादल बनके मुझ पर
बरस बरस जाओ।
      -----    सुरेन्द्र भसीन
पता था उन्हें
कुछ भी लड़ने को नहीं है इस बार
न कहने को,न उलाहने को,
न हथियार और न ही कोई औजार...
फिर भी
आदतन,इरादतन वे
लड़ने को मजबूरी में हो गए तैयार
क्योंकि वे विपक्षी थे
और विरोध उनका धर्म...
हार निश्चित जानकर भी वे
चुप नहीं रह सकते थे
कौरवों के अभिनय में जो थे
सामने के अर्जुन से हारने को रहना था तैयार
राम-रावण युद्ध में अनचाहे ही
तोहमत हार की करनी थी स्वीकार
राजधर्म के चलते
अपने कर्मधर्म के चलते!
       ------       सुरेन्द्र भसीन

Saturday, May 25, 2019

पता नहीं
कब?कैसे?क्यों?
मेरे निर्णय, मेरे विचार
मुझसे ही दूर हो जाते हैं
मेरे ही विरुद्ध खड़े हो जाते हैं
मुझको ही गलत ठहराते हुए
लोगों के हाथ में हथियार बन जाते हैं
चौराहे पर लोगों के बीच असहाय खड़ा
अपने ही निर्णयों के तीरों बिंधा
मैं अपाहिज हो छटपटाता हूँ
मग़र वक़्त रहते
स्थिति का सही आकलन कर, अनुमान कर
भविष्य में में नहीं झाँक पाता
न वक़्त के साथ बदल ही पाता हूँ
इसलिए अकेला पड़ जाता हूँ और
अपने ही किए
निर्णयों से,विचारों से,बोलों से
हर बार घिर/बिंध जाता हूँ।
       -----      सुरेन्द्र भसीन
गुस्सा!
क्रोध करने का
किसी को शौक नहीं होता
परिस्थितियों वश या अभाव में आ जाता है
घने काले बादलों-सा
दिल-दिमाग के आकाश पर
जब वह छा जाता
सब कुछ दिखाई,सुझाई पड़ता है तब
उसके छंटने,बरसने के बाद...
सम्बन्धों में तबतक
दलदली,कीचडनुमा हो जाता है एक बार...

अब बस
समय व धूप ही
हटायेगी क्रोध का प्रभाव...।
        -----      सुरेन्द्र भसीन

Wednesday, April 10, 2019

चुप्पी की बात

तुमने!
अपनी हर बात पर
हर हरकत पर
पहले जो जबरदस्ती चुप करा दिया मुझे
कभी कुछ बोलने ही नहीं दिया था कभी
तो अब जब
मैं बिल्कुल ही चुप हो गई हूँ तो
तुम्ही कहने लगे हो -
'कहो!कुछ कहो!
तुम कुछ बोलती क्यों नहीं?
तुम्हारी खामोशी बड़ी भयावह है
बड़ा डराती है...
भीतर तक मुझे सूना वीरान...खण्डहर कर जाती है।'
तुम्हारी हर उस कारगुजारी का
यातना का, प्रताड़ना का
जो तुमने अपनी सुविधा, ऐय्याशी के लिए
दागी/तोड़ी थी मुझपर का
सिर्फ खामोशी ही मेरा जवाब है अब तक।
घर में अब सिर्फ
कुर्सी-मेज घसीटने की,
खड़खड़ाते बर्तनों की आवाज़ें ही बचीं हैं हमारे दरमियाँ...
कोई बच्चा नहीं,संगीत नहीं,हंसना, कलरव
ऊँची आवाज़ में बात तो बिल्कुल भी नहीं...
एक वीरान जंगल और उसमें
सूखा कुआँ बचा है अब बाकि
उसमें रहते हम, सिर्फ हम...
अलग-अलग
एक-दूजे को ढोते...
मन मन के आँसू रोते...
   ------       सुरेन्द्र भसीन


हमारे पूर्वज
अगर बृक्ष के तना और
तनों की टहनियाँ हैं तो
हम उनपर उगते
हरे-नन्हें कोमल पत्ते, फूल और फल।
हमारी परम्पराएं
हमारी पूर्वजों की कमाई हैं
जो हमने वसीहत में पायी है
यह उनकी वह सोच है जो
हमारी आदत में उतर आयी है
जो उन्होंने
अलिखित रूप में हम तक पँहुचाई है
हम जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं
उनमें कुछ अपना कुछ नया जड़ते हैं
...और  यूँ हम आगे बढ़ते हैं।

Tuesday, April 9, 2019

निराशा/हताशा

रात जब मैं
सोने को होता हूँ
तो दिन भर हुए पंगों के लिए
बड़ा रोता हूँ।
समझ नहीं आता है कि
लोग मुझसे लड़ते हैं याकि
मैं ही उनसे भिड़ जाता हूँ या
अपनी बदकिस्मती का मारा सदा
सच बोलने की सजा पाता हूँ....
मैं कुछ बोल दूँ तो
किसी को नहीं सुहाता है और
न भी कुछ कहूँ तो भी
झगड़ा हो जाता है...
इन दिनों आत्मविश्वास तो मेरा टूट ही गया है
मुझसे मेरा भाग्य भी रूठ गया है...
अबतो लगता है
मैं किसी काम का नहीं - निपट गंवार हूँ
मुझ पर शनि नहीं
मैं शनि पर सवार हूँ
मेरा क्या होगा?
समझ नहीं पाता हूँ...
इसी चिंता में दिनोंदिन घुला जाता हूँ...
कोई बताये मैं किस देवता को मनाऊँ?
और अपनी बिगड़ी बनाऊँ।
          -------      सुरेन्द्र भसीन

Friday, March 29, 2019

दर्शन

यूँ
ये दरख़्त नहीं
भक्त हैं ईश्वर के
खड़े सनाथ
शांत चित्त नमन पूजा में
ईश्वरीय भजन में हिलते-डुलते हों जैसे...
और ये पहाड़ी श्रखंलाएँ-
शांत पड़ी देह ऋषियों की,पूर्वजों की
हमें निहारती याकि
समय का मुस्तैद कोई चौकीदार जैसे
धरा को निहारता अपनी निर्निमेष निगाहों से...
पक्षियों का कलरव
जानवरों की हुंकारें, हिनहिनाहटें, डकारें...
जल में फ़िरते
विभिन्न प्रकार के
रँगीले,सपनीले जलचर
और पृथ्वी का अनन्त विस्तार
सबकुछ
चमत्कृत, आह्लादित करता
एक खुली आँख का स्वपन
शहद-सी मीठी रसीली बून्द-सा
टपकने को
मात्र !
क्षण !
      ------   सुरेन्द्र भसीन
   



मकड़जाल

किसी
मकड़े को देखो
कैसे अपने ही बुने जाल में उलझा
कसमसाता है मग़र लालच की
बुनी तानो से छूट नहीं पाता है
बिल्कुल वैसे ही रिश्तों के तानों
में जकड़ा इंसान भी विवश छटपटा रहा है
मग़र छूट नहीं पा रहा है
यह जो सामाजिक ताने हैं
समय सोखती-उम्र चूसती हैं सदा...
इसमें घिरा इंसान
कितना इनसे सुख पा रहा है या
दुखी हुआ जा रहा है...
      -------     सुरेन्द्र भसीन

वहम

चैन का
शाँति का
विस्तार भी ऐसा होता है जैसे
बर्तन में पड़ा निश्छल दूध
वहम की एक बून्द पड़ते ही
फटता है
तार तार होता है...
       ----  सुरेन्द्र भसीन

प्रारब्ध

कितना भी
ऊँचा भी क्यों न चले जाओ
इस जीवन में
मग़र उससे ऊँचा, अनन्त, असीम
भी था कभी, है..और रहेगा...
कितना भी
नाम, धन,बल भी क्यों न पा लो
इस जीवन में
मग़र इससे अधिक, असीम और अनन्त भी
पाया था, है और पाया जाता रहेगा...
इस क्षण भंगुर संसार में तो
ऊँचाई के भर्म को न पालो
अपने जीवन के प्रारब्ध को समझो!
और इसे सम्भालो!
        -----    सुरेन्द्र भसीन

पुनर्जन्म एक प्रक्रिया

हमारी
इस देह से अधिक तो
हमारा दिमाग सोता है सदा...
शरीर तो उठता है हर दिन
मग़र हमें होश कहाँ होता है...
बेहोश पड़ा रह जाता है-
सब कुछ देखता,सुनता,करता, समझता भी...
जगता नहीं है जीवनभर
सोया-सोया-सा, खोया-खोया-सा...
यूँ शरीर तो आकर
चला जाता है इस संसार से कई कई बार
मग़र होश नहीं पाता जन्मों-जन्मों तक...
तभी तो
फिर-फिर आने को विवश
अपने को दोहराता
बार बार आता...
        ------    सुरेन्द्र भसीन

सच एक इबादत

सच में
सच के लिए
सब चुप हैं
कुछ बोलने से पहले ही
झूठ है... झूठा है के शोर के
पहाड़ के पहाड़ खड़े हो जाते हैं
और कुछ भी कहने से पहले-
सच बोलने से पहले
सभी अपनों से ही पिट जाते हैं।
न जाने लोग सच सुन हज़म क्यों नहीं कर पाते हैं?
कुछ कहने को उठो समाज में तो
कुर्ते फाड़ दिये जाते हैं या
काली स्याही से चेहरे पोत दिये जाते हैं
और सच कहो अपनों में तो
सदियों के अपने
क्षण में बेगाने हो जाते हैं।
             -------    सुरेन्द्र भसीन

Monday, March 18, 2019

कब्जा

जब
भी तुम
आकाश में उड़ती
किसी सुंदर चिड़िया को
पिंजरे में डाल लेते हो
सुंदरता को कब्जा लेते हो
तो तुम यह नहीं जानते कि
अब वह चिड़िया
सुंदर रही ही नहीं...
       -----       सुरेन्द्र भसीन

Saturday, March 9, 2019

सर्पीले सवाल

कितने ही अनगिनत
हाँ..न..किंतु..परन्तु..अगर..मगर के विषैले
साँपों को हटाकर जब भी मैं
सत्यरूपी मणि को उठाता हूँ तो
उसे नकली पाकर
हरबार ठगा-सा रह जाता हूँ कि
जब प्रश्नरूपी साँप असली थे
तो उत्तररूपी मणि नकली क्यों?
क्यों यह इस जीवन में चल नहीं पाती है
मेरे किसी काम नहीं आती है?
हर तरफ प्रश्न हैं 
प्रश्न का सागर है गोता खाने को
ऊबचूब होकर, उनमें डूब के मर जाने को
मगर कोई किनारा नहीं न मिलता
उनसे पार उतर जाने को....
          ----     सुरेन्द्र भसीन




Friday, March 1, 2019

हम नहीं चाहते
मग़र वे तारें-बाड़ें पार कर-कर के
आते हैं इधर बारंबार...
हम नहीं चाहते
फिर भी वे मारे जाते हैं हमारे हाथों
उन परायों की आजादी की चिंता करते
जो कभी ग़ुलाम थे ही नहीं और
जिन्होंने एक बार भी उन्हें पुकारा ही नहीं...
मग़र वे चिंता नहीं करते  अपनी,
अपने वतन की
अपने करोड़ों भाईयों की
जो उनके गुनाहों की शर्मिंदगी ढोते हैं और
बेवजह गुनाहगार होते हैं...

 वे स्वार्थों पर सवार
हारे हुए जुआरी
जब-जब दांव लगाते हैं
अपनी हार-हार के सिवा कुछ नहीं पाते हैं...

अब कोई खैंचकर जबर्दस्ती उन्हें
इस नापाक दलदल से निकालेगा वरना
इंसानियत का दुश्मन टोला सब को
मुश्किल में डालेगा।
          ------       सुरेन्द्र भसीन
अपनी नज़र का नजराना दे दो
नज़र मिलाने का इक बहाना दे दो।

प्यार नहीं है तो उलाहना दे दो
सांत्वना का इक सिरहाना दे दो।

रूप का सपना सुहाना दे दो
इक गीत गज़ल शायराना दे दो।

शुक्रवार है तो शुकराना दे दो
शुक्रिया कहने का बहाना दे दो।

याद नहीं हूँ तो यादों में रहकर
जीने का मुझे इक बहाना दे दो।
       -----



Saturday, February 23, 2019

जीवन/हताशा

उम्र के
इस पड़ाव तक आते-आते
मैं सोचने लगा हूँ कि
मैंने जीवन भर क्या खोया ? क्या पाया ?
मेरे सपने, मेरे अपने
मेरे सामने से निकलते गये
और मैं मुठ्ठियाँ भींचे रहा
मग़र उनके मन तक को कभी
छू न पाया।
क्या रही हस्ती मेरी?
और क्यों मैं एक काले भौरें की तरह
चाहतों के रंग-बिरंगे फूलों पर
मंडराता रहा उनपर कभी बैठ न पाया?
क्यों मैं वह कर न सका
जो मैंने जीवन भर करना चाहा?
क्यों जब मुझे होश आया तो
मैंने सब कुछ गंवा कर
अपने आपको इस चारपायी पर पाया?

अब इस चारपायी के बाद तो
चार कंधे ही मुझे आगे ले जायेंगे
मेरे इस तारकोली जीवन से
मेरा पीछा छुड़ाने के लिए
और नवजीवन दिलाने के लिए...
       -------        सुरेन्द्र भसीन

बदलाव

बदलाव

चलने नहीं दिया जा सकता
जो सदियों से चलता चला जा रहा है
कहीं तो रूक कर,
सोच कर
बदलना होगा
जो गलत होता चला जा रहा है
जब हवाएँ भी रूख़ और
नदियाँ तक रास्ता बदलती हैं
तो हमें भी बदलना होगा
वक्त के साथ चलना होगा।
        --------         सुरेन्द्र भसीन

Thursday, February 21, 2019

mere vichaar


अपने अनुभव को बढ़ाना ही जीवन है
और उसे जी जाना ही मृत्यु।।     11/12/2015

भय छोटे से शुरू होकर बहुत बड़ा होकर
निकल जाता है।।    11/12/2015

हर बात हरेक को कहनी नहीं आती है
और न हरेक को समझ आती है ।। 4/12/2015

 bhut vyst hain log. mahanagron mei vkt ke speed kafee tej hai.                     4/12/2015

smaj rupee fl khnee-khnee se gl gya hai.   26/11/2015


ptthron ko chuumne se ve fuul nheen bn jaate
mgr unhen aise skeer skte hain ki ve aaden n aayen. 24/11/2015


koe bhe hr smye tyaar nehin rhta.     23/11/2015

bhotikta kee unchieyon ke saare raaste kmeengee kee
dldl se bhre hain.    22/11/2015


khushee ke kbhee daam nheen dekhe jaate.   19/11/2015


pap-puny, roshnee-andhera,haar-jeet,achcha-bura
sda sda brabr hee hota hai is bhumi pr mgr yh baat alg hai ki kheen kuch kum aur kheen kuch jyaadaa hota hai.  19/11/2015

koee bhee gaalee dekr, nngaa hokr,ya uncha bolkr
dyaanto aakrshit kr skta hai mgr smrthn ya shanubhuuti
nheen paa skta.    19/11/2015

kuch bhe fensee-sa, rumani-sa likha hua kavita nehin ho jata hai. kafi kuch ka to koi arth bhe nehin hota, mgr bhed diya jata hai face book pe.     19/11/2015

sb kuch sbko hjm nehin hota.  17/11/2015

sch ko bhee kbhee pnpne do apne bheetre
jhuuth ke share n apne ko khdaa kro
aatma ka such chain bhee paaoo kbhee
n neend mei apne se ldaa kro.   15/11/2015

muchkil ldaaiyaan kuch aor hee hain
jinse hm muhn chipaate hain.
Islie hmaare saamne sda aatnkvaadee hee aa jaate hain.
Adhik smitna, bhrshtaachaar hmei hinsaa lgta hee nheen,
Hm ise bdee shjta se jeevn mei apnaate hain.
Tbhee smaaj mei hinsaa v hthiyaar bdte hee jaate hain. 15/11/2015


Baarudon kee naagfniyaan
Jo pichle mosam mei
Hmne boeein theindushmnon ke lie
Ab ve hmei hee kaat rheen hain aur goliyaan bnkr
Hmaare hee seene chaat rheen hain.  15/11/2015

Jb jb hm jruurt se jyaada chahenge
Kuch log hinsk hote chle jaayenge.   15/11/2015

Umrh gujrne pr kndha dene he aauge.  14/11/2015

Apne sath n hote to tumhare paas hote.  14/11/2015

Apno ka n prayon ka sath to mila hai tumhari nigahon ka.   14/11/2015

Bda ya chota kuch bhe kro ya n kro mgr apne prti styvan bno.  7/11/2015

Meetha bno pr itna nehin ki kale chente he kha jayen. 7/11/2015

yh chup the. hr smy yh chup the,tb tk jb tk stta ke sathee the.   4/11/2015

muhn mei resgulla chupaya ho to teppd kaun khata hai. muhn mai bsa hua rs tukh bnkr apne kpdon pr he aata hai. 3/11/2015

apne bare tk mei sochne ko gbrate hain log. unke jo kmiya nikale usse ktrate hain log. 3/11/2015

kisee ko bhee dimag nehin chahiye vastve mai. 3/11/2015

BDEE AJEEB SE METAL KA BNA HUA HAI DIL PURESKAR LOTANE WALON KA. JO KHUCH KHAS LOGON MEI HE HOTEE HAI. 3/11/2015

kya bolna hai aur khna - yh to her jgh sikhaya jata hai pr chup rhna khna jrruree hai yh nehin sikhaya jata.    2/11/2015

jb saaj koe bj rha hota hai sb chup rhten hain, keeyon ko to dhun smjh bhe nehin aatee mgr jb chup ho jata hai tb sb kh udte hain bda sunder bj rha tha. (yhee duniyadaree hai)  2/11/2015

bdaa hee kaargr hota hai chup rhna aur shee vkt pr kuch khan mgr bdaa hee mushkil hai
jeevan bhr shee vkt chunte rhna.    25/10/2015

tum mujhse aage chlte hue hee mujhe pukaarna kyonki peeche mudkr dekhne mei
jraa ksht hota hai.  21/10/2015

koee bhee beej vnspti yaa praanee ka mnoonukuul pristhithyaan paakr hee futn
laita hai aur yhee bhaagy hai.   21/10/2015


yogyta v adhikaar ke bina hthpuurvk paanaa hee paap hai.    28/9/2015


Sb kuch hota ja rha tha uska bde shee hisab se ki mot he behisab ho gee.             21/09/2015


Maank se adhik ho chukeen
Udaasiyon v thkaanon ko maanspeshiyon se aiktritr kr
Rkt jb mstishk mei phunchata hai to shreere neend mei
Chla jaata hai.         18/9/2015

Shher ka naagrik apnee aamdnee ka chothaai hissa
Hee aavshktaaon pr khrchta hai. Baakee to vh is baat pr gnvaata hai – ki log kya khengen?  17/9/2015

Jis trh brf paanee mei brf ka tukdaa
Ghul jaata hai isee trh hm bhee vkt
Mei ghul jaate hain.   15/9/2015

Mai tumhaare tve rupee gusse pr pdaa pdaa
Chtptaata hun...
Kuch khunn ya n khuun
Sochta sochta hee
Vaashpit ho jaata hun.  14/9/2015

Preshaan hona hai to
Jldee, jyaada aur umdaa ko apnaaoo. 15/08/2015

Vrshon lgte hain vishvaas bnaane mei
Shun bhee nheen lgte uske dhh jaane mei.  01/08/2015

Prem hee hai jo shtruoon tk mei
Pnp jaata hai.    20/07/2015

Baar baar teekhaa khaane se vh bhee
Meetha lgne lgta hai.   19/7/2015

Paartiyaan v srkaaren jraa unchaa sunteen hain
Isley aavaaj ki peeche chltee hain.  01/07/2015

Mstishk mei jaise vichaar bnte hain usee prkaar mhaashuuny mei aatmaaien pnptee hain aur uchit smy aane pr deh dhaarn krtee hain.   29/6/2015

Sbhee luch haar jaane pr bhee
Achchaa lge to smjho pyaar hai.   28/6/2015

Saaraa kaa saaraa vh hmaare kaam neheen aayegaa jo hmaara anbhv nheen hai.   26/6/2015

Tum anubhvon se apne saath jo nyaa hona km krte ho n
Yh bhee mrityu hee hai.    7/6/2015

Roj apnee dhrtee ko buhaarte ho
Roj apnee deh ko buhaarte ho
Roj apne bheetre bhee buhaaro
Aur apne ko jor se pukaaro.  21/5/2015

Kaal(vkt) ne sb jaayaa(jnma) hai aur
Kisee ne bhee nheen.    20/5/2015

परिवर्तन से ही वक्त का पता चलता है,
या परिवर्तन ही वक्त है।
०००००
वक्त जीवन्तता पर
अधिक असर करता है।     7/5/2015

Jo kuch bhee tumhaare puurvjon ne kiyaa hai  vh
Tumhaaree deh mei hair cha bsaa. Saavdhaan! Jo
Kuch bhee tum krne jaa rhe ho  tumhaaree sntaanon
Mei jaayegaa avshy.    6/5/2015

Jb jb hm sngrh krte jaate hain fir vh smbndhon ka ho sa saamaan ka.
Tb tb mrityu ka bhy bhdtaa hee jaata hai. Yaani tyaag se hee hm
mrityu ke bhy ko jeet skte hain.   6/5/2015