Saturday, August 31, 2019

मेरे
एक-एक शब्द को
एक-एक पल को
वह जी लेना चाहती थी
पी लेना चाहती थी चातकी बनकर
वर्षा बून्द के समान
धरती पर गिरने/किसी के सुनने
किसी के समझ लेने से पहले ही
सर्वप्रथम!
उसकी पिपासा शारीरिक न होकर आत्मीय थी
प्रेम प्रदर्शन से कोसों दूर
सरल सहज जैसे
मुझ पर न्योछावर होती
सर्दियों की गुनगुनी धूप!
       -----     सुरेन्द्र भसीन

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